इस बरस के नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला में सिनेमा और सिनेमा से जुड़े लोगों आदि पर हर भाषा , खास कर हिन्दी में नई किताबें कम ही नज़र आईं। इतिहास , विज्ञान , साहित्य , समाज , राजनीति , अर्थव्यवस्था से लेकर धर्म -अध्यात्म तक पर हिन्दी में नई किताबों की आमद और खरीद -फरोख्त भी पर्याप्त रही। लेकिन फिल्मी दुनिया पर नई किताबें तक़रीबन गायब -सी लगीं .सभी मानते हैं कि बौद्धिक सम्पदा से सम्बंधित कानूनों के शिकंजे को डिजीटल टेक्नोलॉजी और खासकर इंटरनेट के जरिये धता बताने वालों के गोरख धंधा , पायरेसी ,यानि अवैध नकल के परिणामस्वरूप फिल्म उद्दोग के वाणिज्यिक हितों को बहुत नुकसान हो रहा है . स्थिति यहां तक पहुँच गई है कि फिल्में आधिकारिक तौर पर रिलीज़ होने के पहले भी इंटरनेट से दर्शकों तक पहुँच जाती हैं. यह भी तो गौरतलब है कि बावजूद पायरेसी समस्या के , विश्व फलक पर और भारत में भी फिल्मों का निर्माण और फिल्मी गतिविधियां कम नहीं हुई हैं . उनका मुनाफा भी बरकरार है। फिल्मों के एकसाथ अनेक स्क्रीन वाले सैंकड़ों मल्टीप्लेक्स थियेटर में मंहगी टिकट दर से होने वाली ताबड़तोड़ कमाई के अतिरिक्त उनमें विभिन्न उत्पादों के खुल्लमखुल्ला या कुछ -खुले -कुछ- बंद विज्ञापनों और गीत -संगीत के राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय राइट्स ही नहीं उनके सीक्वेल -प्रिक्वेल तक के राइट्स का अच्छा -ख़ासा कारोबार होने लगा है। अब शायद ही कोई फिल्म हो जो वाणिज्यिक शब्दावली में बिल्कुल फ्लॉप कही जा सके. दूसरे देशों से कमाई का हिसाब ना भी जोड़ें तो अकेले भारत के ही बाजार के अधिकृत आंकड़ें से पता चलता हैं कि हर साल कुछेक फिल्में तीन--चार सौ करोड़ रूपये तक का कारोबार करने लगी हैँ.

तो फिर सिनेमा पर किताबों और खास कर हिन्दी में स्तरीय पुस्तकों की कमी क्यों आ गई है। क्या सिनेमा पर हिन्दी में मौलिक -अनुदित पुस्तकों के प्रेमी नहीं रहे या नगण्य हो गए। नहीं तो , क्या प्रकाशक सिनेमा के बजाय अन्य विषयों की हिन्दी समेत अन्य भाषाओं की भी कितबों को ज्यादा मुनाफेदार मान सिनेमा पर किताब छापने से कतराने लगे हैं. या फिर ऐसा तो नहीं कि पुस्तक- प्रेमी और प्रकाशक तो तैयार खड़े हैं लेकिन सिनेमा पर नई किताब लिखने में सक्षम लेखकों का जी उकता गया या फिर वे लेखक किसी और विषय या सर्वथा अलग धंधे में लग गए। संभव है कि इनमें से कोई कारण सही न हों . या फिर उपरोक्त सभी अथवा उनमें से कुछ सही निकलें। कारण जो भी निकले सवाल तो उठेगा ही कि ख़्वाजा अहमद अब्बास की करीब 50 बरस पहले लिखी किताब , " फिल्में कैसे बनती है " जैसी कोई भी एक अदद किताब कम-से -कम हिन्दी में क्यों नहीं लिखी गई और प्रकाशित हुई जो सिनेमा प्रेमियों की उचित जिज्ञासा की पूर्ती कर सके?

सवाल तो यह भी होगा है कि बीते बरस हिन्दी सिनेमा पर जो थोड़ी किताबें छपीं वे लगभग सारी अंग्रेजी में ही क्यों लिखी गई हैं? इनमें से जिन तीन की चर्चा हुई वे बहुत गम्भीर नहीं बल्कि ग्लैमर की चाशनी में डूबी और व्यक्तिपरक हैं। ऋषि कपूर की मीना अय्यर के सहयोग से लिखी पुस्तक , " ऋषि कपूर अनसेंसर्ड खुल्लम खुल्ला " और करण जौहर की पूनम सक्सेना के सहयोग से लिखी पुस्तक " ऐन अनसुइटेबल बॉय " उसी तरह की आत्मकथा है जो आत्मविभोर से गदगद होकर लिखी , नहीं लिखवाई गई है। तुर्रा तो यह है कि तीसरी किताब , अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी की अंग्रेजी में लिखी सँस्मरणात्मक पुस्तक , " एन ऑर्डिनेरी लाइफ " प्रकाशित होते ही राष्ट्रीय महिला आयोग में दाखिल शिकायत पर बाजार से वापस ले ली गई.

आखिर में बस यह सवाल कि क्या मनमोहन चड्ढ़ा लिखित पुस्तक ‘हिंदी सिनेमा का इतिहास ’ के बाद हिन्दी सिनेमा का कोई इतिहास और भविष्य नहीं रह गया है जो किताब की शकल ले सके