( द सिटिजन में फूलन देवी के बारे में प्रकाशित किया गया है और आगे अन्य लोकप्रिय चेहरों पर भी इसी तरह के दृश्य प्रकाशित किए जाएंगे। )

जब 1999 में ममता बनर्जी पहली बार केंद्रीय रेल मंत्री बनीं, मैं दि टेलीग्राफ अखबार में काम करता था। किसी भी बंगाली राजनेता के लिए दि टेलीग्राफ़ या आनंद बाजार पत्रिका सरीखे अख़बारों में छपना दिली चाहत होती है। जब ममता बनर्जी केंद्रीय रेल मंत्री थीं तो उनके साथ यात्रा करने के मुझे अनेक अवसर मिले जिसके चलते मैं उन्हें अधिक नज़दीक से समझ सका। एक बार हम लोग मसूरी एक्सप्रेस से देहरादून जा रहे थे। ममता बनर्जी को फर्स्ट एसी कोच में सफर करना था और रेलवे अधिकारियों तथा पत्रकारों को सेकेण्ड एसी कोच में। अपनी कोच में प्रवेश करने के बाद जब उन्होंने देखा कि उसमें केवल उच्च अधिकारी ही हैं और पत्रकार नहीं हैं तो उन्हें झुंझलाहट हुई। तब दीदी (उनके लिए लोकप्रिय संबोधन) इस बात पर अड़ गयीं कि वे भी पत्रकारों और मध्य एवं कनिष्ठ स्तर के रेल अधिकारियों के साथ ही सेकेण्ड एसी कोच में ही सफ़र करेंगी। अभी वे एक सीट पर बैठी ही थीं कि तभी एक वृद्ध व्यक्ति अपनी सीट खोजते हुए वहां आये। वो सीट उन्हीं सज्जन की थी और वे वहीं चक्कर लगा रहे थे जबकि अधिकारी उनसे गुज़ारिश कर रहे थे कि चूंकि मंत्री महोदया उस सीट पर बैठी हैं लिहाज़ा वे किसी अन्य सीट पर बैठ जाएं। अपनी उम्र की वजह से शायद वे ऊंचा सुनते थे इसलिए बात को अनसुना कर उसी सीट पर बैठने का आग्रह करते रहे। माजरा समझ कर मंत्री महोदया तुरंत उस सीट से उठ गयीं और नम्रतापूर्वक उन सज्जन को उस पर बैठने को कहा। बाद में पता चला कि वे सज्जन स्वतंत्रता सेनानी थे। मंत्री महोदया ने ये सुनिश्चित किया कि उनकी यात्रा आरामदायक रहे।

जब रात्रि-भोज परोसा जाने लगा तो ममता बनर्जी ने भोजन ग्रहण करने से मना कर दिया क्योंकि यात्रा में वे अपना खाना खाने के डिब्बे में लेकर चलती हैं। मैं मंत्री महोदया की इस सादगी को देखकर अचंभित था। वेटर के जोर देने पर उन्होंने ट्रे में से भिन्डी की थोड़ी सी सब्जी उठायी और उसे धन्यवाद कहा। मेरे समेत ज़्यादातर लोग फिर सोने चले गए। कुछ देर बाद जब मैं पानी पीने के लिए उठा तो मद्धिम रोशनी में क्या देखता हूं कि कोई महिला बैठी हुई किसी वर्दी पहने व्यक्ति से बात कर रही है। तब मुझे यह एहसास हुआ कि ये तो मंत्री महोदया हैं जो अति विशिष्ट व्यक्ति की ड्यूटी में उस कोच में तैनात रेलवे प्रोटेक्शन फ़ोर्स के सब-इन्स्पेक्टर से बतिया रही हैं। वे उस सब-इन्स्पेक्टर से उसका हालचाल पूछ रहीं थीं, उसकी सेवा शर्तों के बारे में जानना चाह रहीं थीं और ये भी जानना चाह रहीं थीं कि जल्दी ही होने वाले रिटायरमेंट के बाद उनका क्या करने का इरादा हैं? वो सब-इन्स्पेक्टर यह देखकर बहुत प्रभावित हुआ कि हमारे देश में मंत्री भी इतना मानवीय नज़रिया रख सकता है। उसने मंत्री महोदया को आशीष दिया कि वे एक दिन अवश्य बड़ी शख्सियत बन कर उभरेंगी। एकबारगी मुझे लगा कि ये मंत्री महोदया की मध्यवर्गीय विनम्र पृष्ठभूमि ही है, मेरे प्रयास के चलते तेज़-तर्रार कहलाने वाली नेता का मानवीय चेहरा भी उजागर हो जाता है।

इस बातचीत के दौरान उन दोनों के चेहरों पर आ जा रहे भावों और मुद्राओं को कैमरे में क़ैद करना निसंदेह एक बड़ा मौक़ा था, लेकिन उस समय उपलब्ध कैमरा तकनीक के चलते यह संभव नहीं था। निसंदेह डिजिटल कैमरे के वर्तमान सन्दर्भ में यह मौक़े के रूप में सामने आता। फिर भी एक सतर्क ख़बरी छायाकार होने के नाते मैंने उस दृश्य को शब्दों में बांधने का निर्णय लिया और मैंने ख़बरी रिपोर्ट लिख डाली। मैं जो कहना चाह रहा हूं वो ये कि भले ही परिस्थितियां आपके नियंत्रण में न होने के कारण आप तस्वीर खींचने में कामयाब नहीं हुए हों, फिर भी जो कुछ आप ने देखा उसका वर्णन एक खबरी रिपोर्ट के रूप में तो कर ही सकते हैं। अतिश्योक्ति नहीं कि मेरे प्रयास की काफ़ी प्रशंसा की गयी।