किसी की भी ज़िंदगी में वो पहला ही अवसर होता है जब वह कुछ ख़ास करने निकलता है। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ था जब मैं आचार्य विनोबा भावे की शव यात्रा कवर करने वर्धा जाने के लिए हवाई जहाज में बैठा। विनोबा भावे का देहान्त 15 नवम्बर 1982 को वर्धा में हो गया था। जिस हवाई जहाज में मैं बैठा वो डकोटा था और मेरे साथ मेरी सहकर्मी तवलीन सिंह थीं। चूंकि ये मेरी पहली हवाई यात्रा थी, मैंने एक बड़ा और भारी सा कम्बल अखबार में लपेट कर अपने साथ रख लिया था। अब जब मैं उसके बारे में सोचता हूं तो महसूस करता हूं कि अवश्य सभी लोग मुझे बेवकूफ समझ रहे होंगे। अब हवाई जहाज उड़ चला और धीरे-धीरे आकाश की ऊंचाई छूने लगा तो मैंने खिड़की से बाहर का दृश्य देखा जो बहुत सुन्दर लग रहा था, बादल रुई के फाहों की माफ़िक़ बिखरे दिख रहे थे। शाम का धुंधलका छाया हुआ था और ऐसा लग रहा था मानों किसी ने क्षितिज में रुई फैला दी हो। मेरा मन कर रहा था कि बाहर निकलूं और इस छटा को कैमरे में क़ैद कर लूं। लेकिन तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं तो हवाई जहाज में उड़ रहा हूं।

जैसे ही हम वर्धा स्थित विनोबा भावे के आश्रम पहुंचे हमने देखा कि विनोबा भावे का पार्थिव शरीर वहां रखा हुआ है और लोग उनके अंतिम दर्शन कर रहे हैं। चूंकि मेरे लिए यह एक नई तरह का कार्यभार था, मैं तस्वीर पर तस्वीर उतारता जा रहा था। अचानक हमें याद आया कि रात के साढ़े नौ बज चुके हैं और हमें रात बिताने के लिए होटल की तलाश भी करनी है। हमें बताया गया कि आस-पास रहने की कोई व्यवस्था नहीं है, हां आश्रम में अवश्य एक बड़ा हॉल है जिसमें लोगों ने पहले ही अपने सोने की व्यवस्था कर ली है। वहां एक भी औरत नहीं थी, केवल ऐसे पुरुष ही पुरुष थे जिन्होंने सोने के लिए तात्कालिक इंतज़ाम कर लिए थे। सौभाग्य से हमें एक खाली कोना दिख गया जहां हमने अपना बिस्तर डालने का मन बना लिया। इस समय वही बड़ा कम्बल हमारे काम आया जो कभी मुझ पर हंसे जाने का कारण बना था। हम किसी तरह थोड़ी नींद ले पाए। ज़रा सोचिये तवलीन जैसी अमीर, पढ़ी-लिखी और संभ्रान्त पृष्ठभूमि से आने वाली महिला के लिए नंगे फर्श पर सोना कितना असहज और कष्टदायी रहा होगा। लेकिन उन्होंने कहा, "जगदीश! तुम्हारा कम्बल लेकर चलना बहुत बढ़िया रहा।" तब मुझे महसूस हुआ कि हमारे पेशे में ज़िंदगी कितनी कठिन भी हो सकती है। कभी तो हमें सात सितारा होटलों की सुख-सुविधायें मुहैय्या कराई जाती हैं और कभी हमें रेलवे प्लेटफॉर्म पर भी सोना पड़ जाता है। इस पेशे की यही विडम्बना है। ख़ैर... अगली सुबह आचार्य का अंतिम संस्कार पास के ही एक नदी के तट पर किया गया। उनके अंतिम संस्कार में पहुंचे अति विशिष्ट लोगों में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी मौजूद थीं। विनोबा भावे के पार्थिव शरीर का चक्कर लगाकर उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए इंदिरा गांधी की तस्वीर मैंने खींची। इत्तेफ़ाक़ से प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी की तस्वीर मैं दूसरी बार उतार रहा था।

ऐसा बहुत कम होता है कि अपने पेशे के शुरुआती दौर में ही आपको देश के प्रधानमंत्री को कवर करने का मौक़ा मिल जाए। निसंदेह मैं सौभाग्यशाली रहा, लिहाज़ा खुश भी हुआ। 1981 में प्रधानमंत्री के सफ़दरजंग रोड स्थित निवास पर एक बैठक आहूत की गई थी जिसमें इंदिरा गांधी की उपस्थिति में सिक्किम के तत्कालीन मुख्यमंत्री बहादुर भण्डारी को अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में करना था। मेरे अखबार के संवाददाता सुव्रत भट्टाचार्य को और मुझे इस बैठक को कवर करना था। मुझे अनुमान भी नहीं था कि मेरी खुशी बस कुछ ही देर मेरा साथ देगी। प्रधानमंत्री के आवास में मुझे प्रवेश नहीं दिया गया क्योंकि मेरे पास मान्यता-प्राप्त पत्रकार वाला कार्ड नहीं था। फिर भी हमने अपने कार्यालय के माध्यम से सुरक्षा प्रमुख को सन्देश भिजवाया। हमें इंतज़ार करने को कहा गया। मैंने लोगों को ये बात करते सुना कि सरकार के फोटो डिवीज़न के लोग अभी तक नहीं आये हैं। अचानक प्रधानमंत्री कार्यालय को भी इस बात का आभास हुआ। उनको पता था कि मैं बाहर बैठा हूं तो उन्होंने जल्दी मेरे नाम पर पास जारी किया ताकि मैं अंदर जा सकूं और तस्वीरें खींच सकूं। यह देखकर सिक्किम हाउस के अधिकारी मेरे पास आये और आयोजन की तस्वीरें खरीदने की पेशकश की। एक तरह से यह घटना मेरे लिए 'ऊपरवाला जब देता है तो छप्पड़ फाड़ के देता है' मुहावरे के सच होने जैसी थी, आर्थिक और पेशे दोनों के ही सन्दर्भ में। प्रधानमंत्री निवास के लॉन में एक छोटा शामियाना लगाया गया था जिसके नीचे बैठे मेहमान और कुछ दूसरे लोग प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आगमन का इंतज़ार कर रहे थे। भीड़ में गोद में छोटे बच्चों को लिए महिलायें भी थीं। इनमें से कुछ बच्चे रो रहे थे। यह देख कर श्रीमती गांधी उन महिलाओं से दोस्ताना डांट लगाने के अंदाज़ में बोलीं -"कैसी मां हो? बच्चा रो रहा है और उसे पानी भी नहीं दे रही हो?" मैं देश की प्रधानमंत्री के इस हाव-भाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। निसंदेह यह एक महिला और मां का मानवीय पक्ष था।

लेकिन मैं तो भाग्य का मारा था, मेरे पास केवल 4/5 फिल्म कट रोल्स थे और राज्य सरकार के कर्मचारी मुझसे कह चुके थे कि वे इस आयोजन की तस्वीरें मुझसे खरीदेंगे। श्रीमती गांधी द्वारा उन महिलाओं को दी जा रही मीठी डांट को कैमरे में क़ैद करने की इच्छा रखने के बावजूद प्रधानमंत्री के इस हाव-भाव को क़ैद न कर पाने की स्थिति में होने के कारण मैं खुद को असहाय और हताश पा रहा था। मुझे याद है कि एक दिन पहले ही मैंने ये सामान्य 50 एम एम लैंस वाला ये नाईकोरमल कैमरा अपने वरिष्ठ छायाकार सोंदीप शंकर से 1100 रुपये में खरीदा था इस वादे के साथ कि अगले 2-3 महीने में पैसा चुकता कर दूंगा। जैसे ही कार्यक्रम शुरू हुआ कुछ ऐसा हुआ कि एक-दो तस्वीरें खींचने के बाद ही फिल्म रोल ख़त्म हो जाये और दोबारा रोल चढ़ाना पड़े। एक-दो बार तो ऐसा तब हुआ जब श्रीमती गांधी और भण्डारी तस्वीर खिंचवाने के लिए एक ख़ास मुद्रा में होते और ऐसे में वे खीझ उठते, ख़ासकर श्रीमती गांधी जो बोल भी उठीं-" भाई क्या कर रहे हो, जल्दी करिये।" मैं स्वाभाविक रूप से परेशान और घबराया हुआ था, लेकिन किसी तरह आयोजन की तस्वीरें लेने में कामयाब रहा। वैसे भी एक युवा खबरी छायाकार के लिए ये एक चुनौती भरा और गौरवपूर्ण कार्य था। जैसे ही आयोजन ख़त्म हुआ, मैं प्रिंट्स तैयार करने के लिए भागा। सौभाग्य से 15 में से 13 फ्रेम प्रिंट करने लायक निकले। बाद में मैं सिक्किम हाउस गया और वहां अधिकारीयों ने मुझे 13 तस्वीरों के 1300 रुपये दिए। मैं ये राशि पाकर खुश था और उसी शाम मैंने 1100 रुपये सोंदीप को दे दिए।

मेरे व्यावसायिक जीवन में ये घटना महत्वपूर्ण साबित हुई क्योंकि मैंने ऐसी विषम परिस्थिति में भी इतनी बड़ी हस्ती के आयोजन को कवर करने में सफलता पायी थी। यह एक बहुत बड़ी चुनौती पर विजय पा लेने जैसा था। इस कार्यभार को पूरा करने के बाद मुझे अपने व्यावसायिक पेशे के शुरुआती सालों में ही जो सन्देश मिला वो ये था कि तस्वीर उतारते वक़्त व्यक्ति को किसी व्यक्तित्व या फिर घटना की विशालता से प्रभावित नहीं चाहिए बल्कि किसी भी तरह अपने कार्यभार को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।