सनातन धर्म में एक प्रसिद्ध श्लोक है - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमनते तत्र देवता, यत्रोतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्त्रा फला: क्रिया. इसका अर्थ है जहां स्त्री जाति का आदर सम्मान होता है, उनकी आवश्यकताओ - उपेक्षाओ की पूर्ति होती है, उस स्थान, समाज तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते हैं. जहां ऐसा नहीं होता और स्त्री जाति के प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहां देवकृपा नहीं रहती है और वहां संपन्न किए गए कार्य सफल नहीं होते हैं.

लेकिन हमारे समाज में यह श्लोक , केवल एक श्लोक मात्र ही रह गया है. वास्तविकता इसके अर्थ से कोसों दूर है. माँ दुर्गा, जिसे लोग शक्ति का स्वरूप मानते हैं, की अलग - अलग रूपों की हर वर्ष नवरात्रि में पूजा व आराधना होती है. अष्टमी के दिन लोग 10 वर्ष से छोटी लड़कियों को देवी के रूप में पूजते हैं, जिसे कन्या पूजन के नाम से भी जाना जाता है. लेकिन यही लड़कियां जब बड़ी हो जाती है, तो फिर लोगों को इनके अंदर की देवियां दिखनी बंद क्यों हो जाती है?

आख़िर क्यों शारीरिक संरचना नारी के अस्तित्व को परिभाषित करना शुरू कर देती है? प्राकृतिक रूप से होने वाले शारीरिक बदलाव पर उन्हे अशुद्ध होने का प्रमाण पत्र क्यों दिया जाने लगता है? जिस मासिक धर्म या पीरियडस् पर हमारा समाज खुल कर बात नहीं कर सकता, उसे यह अधिकार किसने दे दिया कि वो फैसला करे कि किसे किन स्थितियों में मंदिर जाना चाहिए या फिर पीरियडस् के दौरान किसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं?

असम के गुवाहाटी में स्थित देवी कामाख्या मंदिर के बारे में तो हिंदू समाज अच्छे से परिचित है. पुराणों के अनुसार, जहां - जहां सती के शरीर के अंग के टुकड़े गिरे वहीँ शक्ति पीठ अस्तित्व में आए. कामाख्या देवी, उन्हीं 51 शक्तिपीठों में से एक है जहां उनकी योनि गिरी थी. कामाख्या पीठ, भारत का सबसे प्रसिद्ध पीठ है. इस मंदिर की परंपरा है कि जब तक कामाख्या देवी का मासिक धर्म संपन्न होता है तब तक यहां भव्य मेला लगता है. इस मेले को अंबुबाची महोत्सव के नाम से जाना जाता है और इसे देखने के लिए दुनिया भर से श्रद्धालु एकत्रित होते हैं. और मेले के बाद जब मंदिर का कपाट खुलता है, तो दिव्य प्रसाद के रूप में लाल रंग का वस्त्र बांटा जाता है जिसे देवी राजस्वला के दौरान धारण करती है. ऐसी मान्यता है कि जिसे उस वस्त्र का टुकड़ा मिलता है उसकी सारी समस्याएं दूर हो जाती है. एक तरफ समाज मासिक धर्म या पीरियडस् के दौरान स्त्रियों को मंदिर में प्रवेश करने से रोक लगा देता है, वहीँ देवी कामाख्या का उसी रूप में वन्दना करता है! आखिर यह कैसी मानसिकता है?

अब हम केरल के सबरीमाला मंदिर के विषय पर आते हैं, जहां पिछले सैकड़ों वर्षों से महिलाओं का प्रवेश वर्जित था. लेकिन 28 सितम्बर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले के जरिए उस मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक हटा दी.

केरल के इस मंदिर में, जहां अयप्पा प्रभु की पूजा होती है, 10 से 50 साल की महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगी थी. इस मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर इसलिए प्रतिबंध लगा था क्योंकि इसी आयुवर्ग की महिलाओं को मासिक धर्म या पीरियडस् आते हैं.

प्रतिबंध का समर्थन करने वाले लोग तर्क देते हैं कि श्रद्धालुओं को मंदिर में आने के लिए 41 दिनों तक व्रत रखना पड़ता है और शारीरिक कारणों से महिलाएं ऐसा नहीं कर पातीं क्योंकि उन्हें हर माह पीरियडस् से गुजरना होता है.केरल का सबरीमाला मंदिर भारत के प्रमुख मंदिरों में से एक है, जो लाखों श्रद्धालुओं के आस्था का केन्द्र है.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकना संविधान के अनुच्छेद 25(धर्म की स्वतंत्रता) का उल्लंघन है अर्थात लिंग के आधार पर पूजा- पाठ में भेदभाव नहीं किया जा सकता है. न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 4:1 के बहुमत से फैसला दिया. अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत समाज करता है या फिर महिलाओं को मंदिर में परेशानियों का सामना करना होगा?भारत में ऐसे सैकड़ों मंदिर हैं, जहां आज भी महिलाओं को प्रवेश नहीं मिलता है. इसलिए, यह लड़ाई केवल कोर्ट तक सीमित नहीं है. बल्कि इससे आगे जाकर यह एक वैचारिक लड़ाई है.