महिलाएं के कानों के लिए सुदंर पिरोने वाली महिलाओं की जिंदगी को हमने इस तरह जाना. मुंबई के स्लम में कान की बालियों को असेम्बल करने का काम कर रही तीन महिलाओं से हमने मुलाक़ात की: सीता, निर्मला एवं सरिता. इन तीनों महिलाओं से हम इसीलिए मिल पाएं क्योंकि जब हम नेताजी नगर, 90 फीट (साकी नका, कुर्ला, मुंबई) इलाके में घूम रहे थें तब ये महिलाएँ अपने घर के दरवाज़े के पास बैठ कर कान की बालियों को असेम्बल कर रहीं थी. जिस वक़्त हम उस इलाके में घूम रहें थें उसी वक़्त अगर वो महिलाएँ अपने घर के दरवाज़े के पास बैठ कर काम नहीं कर रही होतीं तब शायद मैं उनसे नहीं मिल पाती. मैं जान ही नहीं पाती कि वो महिलाएं घर के कामों के अलावा और भी किसी तरह का काम करती हैं. अपने घर में रहते हुए पैसे के लिए किसी भी तरह का काम करने वाली महिलाएं अदृश्य श्रमिकों (invisible workforce) की श्रेणी में आती हैं.

महिलाएँ घर में रह कर काम करना क्यों चुनती हैं

जब हम सीता से मिले तब दोपहर के 3:00 बजे थे. लेकिन बादल होने की वजह से लग रहा था जैसे शाम का 6:00-6:30 बज रहा हो. सीता बाहर से आने वाली रौशनी (अँधेरा) में ही कान की बालियों को असेम्बल करने का काम कर रही थी. वो कम रौशनी में काम क्यों कर रही है? लाइट क्यों नहीं जला लिया पूछने पर उसने कहा, ‘कितने घंटे तक ट्यूब लाईट जला कर रखूँ? बिजली बिल ज्यादा आ जाएगा.’

सीता ओड़िसा के गंजम जिले से हैं. उनको मुंबई में रहते हुए 25 साल हो गए हैं. उनके दादा जी गाँव से मुंबई आने वाले पहले इंसान थें. सीता घर में रह कर पैसा कमाने का काम पिछले 10 सालों से कर रही हैं. उन्होंने बताया- कान की बालियाँ असेम्बल करने के पहले उन्होंने एक्स्ट्रा धागा काटने का काम किया है, उन्होंने सैंडल और बालों के पिन में मोती बिठाने का काम किया है. घर में ही रह कर काम करना क्यों चुना जबकि घर से कुछ दूरी पर ही कई कारखाने है पूछने पर सीता ने बताया- मेरे पति मुझे मेरे पसंद की ड्रेस (समीज सलवार) पहनने नहीं देते वो मुझे बाहर काम कैसे करने जाने देंगे. जबकी कोई महिला घर का काम निपटा लेने के बाद या तो थोड़ा आराम करती है या टी. बी. देखती है या फिर पडोसी से गप्पे लगाती है. कई बार गप्प बहस का रूप ले लेता है. मूड खराब करने से अच्छा है घर में बैठे बैठे कुछ काम ही कर लो.

जब हमारी मुलाक़ात निर्मला से हुई उस वक़्त वो कान के बाली में लगने वाले पिन को सफ़ेद रंग के कार्ड में लगा रही थीं. निर्मला की उम्र 40 वर्ष है. वो अपने पति एवं बेटे के साथ 10*10 के किराए के कमरे में रहती हैं. उनके पति साकी नाका एरिया में एक कुरिअर कम्पनी में काम करते हैं. निर्मला एवं उनके पति भी उड़ीसा से ही हैं. निर्मला 20 साल पहले मुंबई आईं- शादी होने के बाद जबकि उनके पति को मुंबई में रहते 25 साल हो गए हैं. जब निर्मला से घर पर रहते हुए ही काम करने का कारण पुछा तब उन्होंने दो कारण बताया: पहला, पति के काम पर चले जाने के बाद एवं बच्चे को स्कूल भेज देने के बाद बोर होने से अच्छा है कुछ कर लूं जिससे थोडा पैसा आ जाए. दूसरा, बेटे का नाम अंग्रेजी मीडियम स्कूल में लिखवाया है. स्कूल का हर महीने का फीस 1500 रुपए है. अगर मैं काम करने बाहर चली गई तब बेटा स्कूल से आने के बाद खेलता ही रहेगा. उसे पढाई करने के लिए बार बार बोलना पड़ता है. उसके समझ नहीं आता कि इतना पैसा लग रहा है उसकी पढ़ाई पर. उसे अच्छे से बिना किसी के कहने पर ही ज्यादा समय पढ़ाई पर लगाना चाहिए.

जब हम सरिता से मिले उस वक़्त उनके सामने कई सारे सफ़ेद रंग के कार्ड एवं रंग बिरंगी मोतियाँ फैली हुई थी. वो 10*10 के कमरे में अपने पति एवं 7 साल के बच्चे के साथ रहती हैं. यह कमरा उनके ससुर जी ने ख़रीदा था जो काफी समय पहले उड़ीसा के गंजम जिले से मुंबई काम की तालाश में आये थें. सरिता के पति सिक्योरिटी गार्ड का काम करते हैं. उनका महीने का पगार 9000/- रूपए है.

सीता और निर्मला के घर से ही काम करने के कारण के आधार पर जब मैंने सरिता से पुछा कि क्या वो घर से काम इसीलिए करती हैं क्योंकि पति के काम पर चले जाने के बाद एवं बच्चे को स्कूल भेज देने के बाद उन्हें बोरियत महसूस होती है? जिसपर सरिता ने बड़े तपाक से कहा- नहीं तो, मैं बोरियत दूर करने के लिए काम नहीं करती बल्कि हाथ में खुद का कुछ पैसा आए उसके लिए काम करती हूँ. पति और बच्चे को भेज देने के बाद मैं सो सकती हूँ, बोरियत दूर करने के लिए मैं पड़ोस में जा कर बैठ सकती हूँ, पूरा दिन टी.बी देखते हुए बिता सकती हूँ, बच्चे को शाम में खेलने के लिए पार्क में ले जाती हूँ वहाँ कुछ ज्यादा समय बिता सकती हूँ. मैं काम इसीलिए करती हूँ ताकी घर जाने के पहले सबके लिए कुछ-कुछ खरीद सकूं खुद के पैसे से.

काम एवं उसका मेहनताना

इन तीनों महिलाओं के साथ बात-चीत से पता चला की उस एरिया में लगभग 25 महिलाएँ हैं जो कान की बालियाँ असेम्बल करने का काम करती हैं. उन्हें कान के बालियों के अलग अलग हिस्से उनके घर से थोड़ी दूर एक सेठ के पास से जा कर लाना होता है. कान की बालियों को असेम्बल करने में मुख्यतः तीन तरह से काम होते हैं.

1. कुछ महिलाएँ सफ़ेद कार्ड में सिर्फ पिन खोंसने का काम करती हैं.

2. कुछ महिलाएँ पिन लगा हुआ कार्ड लाती हैं और उनका काम पिन के माथे पर गोंद लगा कर उसपर मोती लगाने का होता है

3. कुछ महिलाएँ पूरा काम करती हैं- सफ़ेद कार्ड में पिन खोंसने से लेकर पिन के माथे पर गोंद लगाने के बाद उसपर मोती लगाने तक.

महिलाओं को दो तरह के कार्ड दिए जाते हैं. एक कार्ड जिसमें 12 जोड़ी बालियाँ आ सकती हैं एवं एक जिसमें 18 जोड़ी बालियाँ फिक्स हो सकती हैं.

अलग अलग तरह के काम में लगी इन महिलाओं का हर महीने का औसत वेतन 400-800 रुपए होता है. लेकिन दुखद बात यह है कि इन महिलाओं को काम कर के दे देने के दो महीने बाद ही वेतन दिया जाता है. जब मैंने इनसे और ज्यादा वेतन के लिए डीलर से बात करने के बारे में पुछा तब निर्मला ने बताया: ‘ मैंने डीलर से कई बार बात की है लेकिन वो कहते हैं- अगर इसी पगार में काम करना है तो करो नहीं तो बंद कर दो काम ले जाना’. उसने आगे यह भी बताया कि उस सेठ के पास लगभग 200 महिलाएँ आती हैं काम लेने. डीलर जानता है- एक या दो महिलाओं के काम नहीं करने से उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है.

कम वेतन एवं ढेरों कष्ट

महिलाओं ने काम की वजह से होने वाली परेशानियों के बारे में बताया. इस काम के लिए लम्बे समय तक बैठना होता है एवं यह काम पूरी एकाग्रता की मांग करता है. कई बार महिलाओं को एक ही कार्ड पर तीन अलग-अलग आकार के मोती चिपकाने का काम मिलता है जिसके लिए उन्हें वो क्रम याद रखना होता है. निर्मला ने अपनी उँगलियों में कटे का निशाँ दिखाया जो पिन को कार्ड में डालने के क्रम में हुआ था. निशान दिखाते वक़्त निर्मला ने कहा, ‘इसकी तो आदत बन गई है अब.’ सीता ने अपने सर में दर्द के बारे में बताया जो उसे लम्बे समय तक कम रोशनी में काम करने से होता है. तीनों महिलाओं ने अपने गर्दन एवं कमर के दर्द के बारे में बाताया जो उन्हें लम्बे समय तक ज़मीन पर बैठ कर एवं गर्दन झूका कर काम करने से होता है.

तीनों महिलाओं ने घर से रह कर काम करने का जो कारण बताया उसमें काफी हद तक समानता थी. उन तीनों ने घर से रह कर काम करना इसीलिए चुना क्योंकि वो अपने घर के कामों को खत्म करने के बाद जो समय बचता है उसका इस्तेमाल पैसा कमाने में कर पाएं. ताकी वो उन पैसों को बिना किसी के रोक टोक के इस्तेमाल कर पाएं.

तीनों महिलाओं को इस बात का भी अहसास है कि वो जितना थकाने एवं मेहनत करने वाला काम करती हैं उस हिसाब से उनको पगार नहीं मिलता. लेकिन उन्होंने कभी बुलंद आवाज़ में सेठ को पगार बढाने के लिए नहीं कहा. क्योंकि उन्हें पता है कि अगर ये काम नहीं करेंगी तो सौ महिलाएँ इसी रेट पर काम करने के लिए तैयार हैं.

ये महिलाएँ अपने घर के कामों में एवं उसके पूरा होने के बाद कान की बालियों को असेम्बल करने के काम में इतना व्यस्त रहती हैं की उन्हें अगल बगल में इसी काम में लगी महिलाओं से बात करने का मौका नहीं मिलता जिस वजह से सब ने एक साथ मिल कर कभी भी पगार बढाने की बात नहीं की. उन्हें पता है कि कोई भी अपना काम खोना नहीं चाहता. और यही वजह है कि एक समय के बाद उन्होंने ये विचार बना लिया- ‘जाने दो, खाली बैठने से अच्छा है कुछ तो आ रहा है’.