जलवायु परिवर्तन से बेखबर सरकारें
जलवायु परिवर्तन से बेखबर सरकारें
जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि पर जब भी कोई अन्तराष्ट्रीय सम्मलेन आयोजित किये जाने की घोषणा होती है. तब उसके कुछ पहले से तापमान बृद्धि पर अनेक संस्थानों द्वारा नई रिपोर्ट जारी की जाती है, और हरेक रिपोर्ट का निष्कर्ष एक ही होता है – जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि कोई कल्पना नहीं बल्कि वास्तविक है और विश्व स्तर पर इसपर चर्चा करने के अलावा कुछ नहीं किया जा रहा है. पेरिस समझौते को कार्यरूप देने के लिए संयुक्त राष्ट्र 2 से 14 दिसम्बर तक पोलैंड में अंतर्राष्ट्रिय अधिवेशन करने जा रहा है, जाहिर है आजकल लगभग हरेक दिन तापमान बृद्धि पर नई रिपोर्ट प्रकाशित की जा रही हैं.
27 नवम्बर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले चार वर्षों से तापमान बृद्धि के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन लगभग स्थिर रहने के बाद पिछले वर्ष यह फिर से बढ़ रहा है. यदि यही हाल रहा तब पेरिस क्लाइमेट समझौते के तहत वर्ष 2020 तक ग्रीनहाउस गैसों के सर्वाधिक उत्सर्जन का जो अनुमान था उसे वर्ष 2030 तक भी हासिल नहीं किया जा सकेगा. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस शताब्दी के अंत तक तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए ग्रीनहाउस गैसों का कितना उत्सर्जन किया जाना चाहिए और वास्तविक उत्सर्जन कितना है. इस वर्ष की रिपोर्ट में दोनों उत्सर्जन के आंकड़ों के बीच की खाई सबसे बड़ी है.
वर्ष 2017 में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन 1.2 प्रतिशत तक बढ़ गया और अभी की परिस्थितियों के अनुसार इसके आने वाले वर्षों में तेजी से बढ़ने की संभावना है. यह हाल तब है जब पेरिस समझौते के तहत वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को आज के स्तर से 55 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य रखा गया था. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार इस लक्ष्य को पाने के लिए देशों को पांच-गुना अधिक तेजी से काम करना पड़ेगा, पर ऐसा कुछ नजर नहीं आता. इस समय विभिन्न देशों के साथ ही 133 देशों के 7000 शहर और लगभग 36 ट्रिलियन डॉलर का कारोबार करने वाली 6000 कंपनियों ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को करने के लिए अपना लक्ष्य बनाया है. कार्बन व्यापार और कार्बन टैक्स के अन्तर्गत केवल 15 प्रतिशत उत्सर्जन सम्मिलित है. रिपोर्ट के अनुसार यदि पूरी दुनिया में जीवाष्म इंधनों पर दी जाने वाली सब्सिडी हटा ली जाए तब उत्सर्जन में 10 प्रतिशत की कमी स्वतः हो जायेगी और यदि कार्बन उत्सर्जन की कीमत 70 डॉलर प्रति टन कर दी जाए तब उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक कम हो जाएगा.
पिछले सप्ताह संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल आर्गेनाइजेशन द्वारा प्रकाशित बुलेटिन के अनुसार वर्तमान में जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के लिए जिम्मेदार ग्रीनहाउस गैसों की वायुमंडल में सांद्रता पिछले 30 से 50 लाख वर्षों की तुलना में सर्वाधिक है. इन गैसों में कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और मीथेन सभी सम्मिलित हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार यहाँ यह जानना आवश्यक है कि 30 से 50 लाख वर्ष पहले पृथ्वी का औसत तापमान आज की तुलना में 2 से 3 डिग्री सेल्सियस अधिक था और औसत समुद्र तल भी 10 से 20 मीटर अधिक था.
बुलेटिन के अनुसार औद्योगिक क्रान्ति के पहले की तुलना में लगभग सभी ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता वायुमंडल में कई गुना बढ़ चुकी है. कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड की सांद्रता वायुमंडल में क्रमशः 2.5 गुना, 3.5 गुना और 2 गुना अधिक हो चुकी है. 1980 के दशक से अंतर्राष्ट्रिय स्तर पर तापमान बृद्धि की बातें चल रहीं हैं, कारण भी पता है और अब तो लगभग हरेक दिन इसके नए प्रभाव सामने आ रहे हैं पर वास्तव में कुछ भी नहीं किया जा रहा है. कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता इस क्षेत्र में तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय गंभीरता को स्पष्ट करती है – वर्ष 2015 में वायुमंडल में इसकी औसत सांद्रता 400.1 पीपीएम, वर्ष 2016 में 403.3 और वर्ष 2017 में 405.5 पीपीएम तक पहुँच गयी.
जर्नल ऑफ़ जियोफिजिकल रिसर्च के नवीनतम अंक में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार पूरे अमेरिका और कनाडा में सर्दी और गर्मी, दोनों के दौरान औसत तापमान बढ़ता जा रहा है. इस अध्ययन के अनुसार वर्ष 1980 के बाद से औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है, अत्यधिक ठंढे दिनों की संख्या घट रही है और अत्यधिक गर्म दिनों की संख्या बढ़ रही है.
इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने हाल में ही बताया है कि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन यदि ऐसा ही रहा तब इस शताब्दी के अंत तक तापमान बृद्धि के 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को किसी भी तरह से हासिल नहीं किया जा सकेगा और इसके गंभीर परिणाम होंगे. यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेलबोर्न स्थित ऑस्ट्रेलियन-जर्मन क्लाइमेट एंड एनर्जी कॉलेज के वैज्ञानिकों के अनुसार केवल बहुत गरीब देश ही तापमान बृद्धि के लक्ष्यों को हासिल कर सकते हैं, जबकि विकसित या विकासशील देश अपने लक्ष्य से बहुत पीछे हैं.
यदि भारत के लक्ष्य पूरे विश्व पर लागू होंगे तब इस शताब्दी के अंत तक 2.6 डिग्री सेल्सियस तापमान बढेगा, चीन और जापान जैसे देशों के लक्ष्य से तापमान 5 डिग्री सेल्सियस तक बढेगा. अमेरिका, पेरिस समझौते से अलग हो गया है, फिर भी उसके लक्ष्य से तापमान 4 डिग्री सेल्सियस तक बढेगा. इस मामले में हमारे पड़ोसी देशों का रिकॉर्ड बहुत अच्छा है. पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका के लक्ष्य से इस शताब्दी के अंत तक औसत तापमान महज 1.2 डिग्री सेल्सियस तक ही बढेगा.
अमेरिका के राष्ट्रपति अभी तक तापमान बृद्धि को भारत और चीन का काला जादू मानते हैं. ब्राज़ील के नए विदेश मंत्री इसे मार्क्सिस्ट प्लाट समझते है. ऑस्ट्रेलिया भी तापमान बृद्धि रोकने के लिए कोई कदम उठाता नहीं दिखाई देता. वहाँ इस मामले में अनेक जन-आन्दोलन किये जा रहे है. ब्रिटेन में भी अब तक का सबसे बड़ा आन्दोलन तापमान बृद्धि रोकने में सरकार की असफलता के मुद्दे पर ही किया जा रहा है.
हमारे देश में तापमान बृद्धि को रोकने के नाम पर विकाशील देशों को कोसा जाता है और उपलब्धि के नाम पर सौर ऊर्जा की चर्चा की जाते है. हाल में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री ने बेसिक (ब्राज़ील, साउथ अफ्रीका, चीन) के पर्यावरण मंत्रियों की बैठक में भी यही सारे मुद्दे उठाये. प्रधान मंत्री जी भी लगातार तापमान बृद्धि की चर्चा करते हैं, पर सत्य तो यही है कि वायु प्रदूषण नियंत्रित किये बिना तापमान बृद्धि को रोकना असंभव है, और इस मामले में हम लगातार नाकाम रहे है.