कितना अजीब लगता है, जब समाचारों में सुनते हैं – खिलाड़ी नीलाम हो रहे हैं, खिलाड़ियों की बोली लग रही है या फिर खिलाड़ी बिके. हजारों साल पहले महिलायें और लड़कियां नीलाम होती थीं, फिर गुलाम नीलाम होने लगे और आज के दौर में खिलाड़ी नीलाम हो रहे हैं. सब बाज़ार के रूप हैं और पूंजीवाद के प्रतीक. बिकने के बाद सब मालिक के इशारे पर चलते हैं. अंतर इतना सा है कि गुलामों और महिलाओं की नीलामी कभी-कभी होती थी, पर खिलाड़ियों की नीलामी एक वार्षिक त्यौहार सा बन गया है. महिलाओं और गुलामों की नीलामी सडकों पर होती थी, पर खिलाड़ी तो वातानुकूलित माहौल में सभी सुविधाओं के बीच बिकते हैं.

नीलामी का सबसे पहला सन्दर्भ ग्रीक दार्शनिक हेरोडोटस के लेखों में मिलता है, जिसने ईसापूर्व 500 वर्ष के दौरान महिलाओं के नीलामी के बारे में बताया था. इसके बाद सम्पदा और भवनों के नीलामी का जिक्र भी किया गया है. कहा यही जाता है कि नीलामी का आरम्भ ग्रीक में ही हुआ था. लेकिन विडम्बना यह है कि यही ग्रीक साम्राज्य पूरा का पूरा 193 ईस्वी में नीलामी के कगार पर पहुँच गया था.

एशिया में भी नीलामी का इतिहास बहुत पुराना है. चीन के बौद्ध भिक्षु मरे हुए बौद्ध भिक्षुओं के कपडे या अन्य उपयोग की गयी सामग्री की नीलामी करते थे और प्राप्त धन से पगोडे (धार्मिक स्थल) का निर्माण कराते थे.

ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में ऑक्शन (नीलामी) शब्द का समावेश वर्ष 1595 में किया गया और इसके बाद यह शब्द प्रचलन में आ गया. इसके बाद यूरोप के अनेक देशों में ऑक्शन हाउस बनाये गए जहाँ चित्रों और मूर्तियों की नीलामी होती थी. इसी दौरान अमेरिका में गुलामों की नीलामी भी शुरू हो गयी. गुलामों की नीलामी इंग्लैंड के मेनचेस्टर में भी बड़े पैमाने पर होती थी, जहाँ के उद्योगों में ये श्रमिक के तौर पर काम करते थे. उन्नीसवीं शताब्दी में नीदरलैंड में फलों और सब्जियों की नीलामी भी शुरू की गयी, इसी तरह जर्मनी में मछलियाँ नीलाम होती थीं. यूरोप के सबसे पहले ऑक्शन हाउस की स्थापना 1674 में स्वीडन में स्टाकहोम ऑक्शन हाउस के नाम से की गयी. विश्व का सबसे बड़ा ऑक्शन हाउस क्रिस्टी है, जो लन्दन में स्थित है.

हमारे देश में नीलामी में तेजी अंग्रेजों के आने के बाद आये, जब वो चाय के बागानों के साथ-साथ अन्य संसाधनों की नीलामी भी करने लगे. राजस्व नहीं चुकाने पर जमींदारों की जायदाद भी नीलाम कर दी जाती थी. इस बारे में अनेक किस्से भी हैं. एक समय बर्दवान के राजा पर राजस्व की बड़ी भारी रकम बकाया थी, इसलिए उसकी संपदाएँ नीलाम की जाने वाली थीं। नीलामी में बोली लगाने के लिए अनेक खरीददार आए थे और संपदाएँ सबसे ऊँची बोली लगाने वाले को बेच दी गईं. लेकिन कलेक्टर को तुरंत ही किसी ने सूचित किया कि उनमें से अनेक खरीददार, राजा के अपने ही नौकर या एजेंट थे और उन्होंने राजा की ओर से ही जमीनों को खरीदा था. नीलामी में 95 प्रतिशत से अधिक बिक्री फ़र्जी थी. वैसे तो राजा की जमीनें खुलेतौर पर बेच दी गई थीं पर उनकी जमींदारी का नियंत्रण उसी के हाथों में रहा था.

राजस्व की अत्यधिक मांग और अपनी भू-संपदा की संभावित नीलामी की समस्या से निपटने के लिए जमींदारों ने इन दबावों से उबरने के रास्ते निकाल लिए. नए संदर्भो में नयी रणनीतियाँ बना ली गईं. फ़र्जी बिक्री एक ऐसी ही तरकीब थी. इसमें कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे. बर्दवान के राजा ने पहले तो अपनी जमींदारी का कुछ हिस्सा अपनी माता को दे दिया क्योंकि कंपनी ने यह निर्णय ले रखा था कि स्त्रियों की संपति को नहीं छीना जाएगा. फ़िर दूसरे कदम के तौर पर, उसके एजेंटों ने नीलामी की प्रक्रिया में जोड़-तोड़ किया. कंपनी की राजस्व मांग को जान-बूझकर रोक लिया गया और भुगतान न की गई बकाया राशि बढ़ती गई. जब भू-संपदा का कुछ हिस्सा नीलाम किया गया तो जमींदार के आदमियों ने ही अन्य खरीददारों के मुकाबले ऊँची-ऊँची बोलियाँ लगाकर संपत्ति को खरीद लिया.

आगे चलकर उन्होंने खरीद की राशि को अदा करने से इनकार कर दिया, इसलिए उस भूसंपदा को फ़िर से बेचना पड़ा. एक बार फ़िर जमींदार के एजेंटों ने ही उसे खरीद लिया और फ़िर एक बार खरीद की रकम नहीं अदा की गई और इसलिए एक बार फ़िर नीलामी करनी पड़ी. यह प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती रही और अंततोगत्वा अंग्रेज और नीलामी के समय बोली लगाने वाले थक गए. जब किसी ने भी बोली नहीं लगाई तो उस संपदा को नीची कीमत पर फ़िर जमींदार को ही बेचना पड़ा. जमींदार कभी भी राजस्व की पूरी मांग नहीं अदा करता था. इस प्रकार, कंपनी कभी-कभार ही किसी मामले में इकट्ठा हुई बकाया राजस्व की राशियों को वसूल कर पाती थी. ऐसे सौदे बड़े पैमाने पर हुए. जब कोई बाहरी व्यक्ति नीलामी में कोई जमीन खरीद लेते थे तभी उन्हें हर मामले में उसका कब्जा नहीं मिलता था. कभी-कभी तो पुराने जमींदार के ‘लठैत’ नए खरीददार के लोगों को मारपीटकर भगा देते थे और कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि पुराने रैयत बाहरी लोगों को यानी नए खरीददार के लोगों को जमीन में घुसने ही नहीं देते थे.

तेज गेंदबाज जयदेव उनादकट और तमिलनाडु के अनजान रहस्यमयी स्पिनर वरूण चक्रवर्ती मंगलवार को जयपुर में हुई आईपीएल नीलामी में सबसे बड़ी रकम में बिके. एक समय अपनी शानदार बल्लेबाजी के कारण फ्रेंचाइजियों की सूची में ऊपर रहने वाले युवराज सिंह नीलामी के पहले दौर में नहीं बिक सके, लेकिन दूसरे दौर में मुंबई इंडियंस ने उन्हें संजीवनी देते हुए उनके बेस प्राइज एक करोड़ में ही खरीद लिया. एक करोड़ की बेस प्राइस के साथ नीलामी में उतरे युवराज पिछले सीजन में किंग्स इलेवन पंजाब के लिए खेले थे, लेकिन फ्रेंचाइजी ने उन्हें रिटेन नहीं किया था.

कई दिग्गज खिलाड़ियों को कोई खरीदार नहीं मिला और इनमें दक्षिण अफ्रीका के तेज गेंदबाज डेल स्टेन प्रमुख रहे जबकि आईपीएल में पहला शतक जड़ने वाले ब्रेंडन मैक्कुलम में भी किसी टीम ने दिलचस्पी नहीं दिखाई. उनादकट को राजस्थान रायल्स ने आठ करोड़ 40 लाख रूपये में खरीदा. उन्हें पिछली बार इसी टीम ने 11 करोड़ 50 लाख रूपये में खरीदा था, लेकिन बाद में रिलीज कर दिया था. उनादकट के लिए किंग्स इलेवन पंजाब, चेन्नई सुपर किंग्स और दिल्ली केपिटल्स में होड़ लगी थी. इंग्लैंड के ऑलराउंडर सैम कुरेन पर भी टीमों ने दांव लगाया. उन्हें किंग्स इलेवन ने 7.2 करोड़ रूपये में खरीदा. दक्षिण अफ्रीका के कोलिन इंग्राम भी दिल्ली कैपिटल्स से 6.40 करोड़ रूपये की मोटी रकम पाने में सफल रहे.