छत्तीसगढ़ में नई सरकार ने आते ही तीन अहम निर्णय लिए हैं। पहला, टाटा कंपनी का भूमि आवंटन रद्द किया गया। पिछले पांच वर्षों में उस जमीन पर कंपनी ने कोई काम नही किया था। दूसरा, किसानों के कर्ज माफी की घोषणा को अमली पहनाया गया। तीसरे और अंतिम निर्णय में, सरकार ने कहा है कि वो नक्सलवाद समस्या का हल शांतिपूर्ण तरीके से बातचीत के जरिए करेगी।

इन तीनों में से, अंतिम चुनौती ज्यादा व्यापक और गहरी है। इसे समझने के लिए बस्तर के जंगल और उसके साथ आदिवासियों के रिश्ते को जानना अहम होगा। यदि हम जंगल को दिल मानें, तो आदिवासी उसकी धड़कन है। जिस तरह से दिल अकेला नही रह सकता है, ठीक वैसे ही अकेली धड़कन का भी कोई वजूद नही है। हम जाने - अनजाने आदिवासियों की एकतरफा और अधूरी तस्वीर बना रहे हैं। और इसी तस्वीर के आधार पर हम बस्तर के लिए नीति बनाते हैं और उसे लागू करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम शुरू कर देते हैं।

ये समुदाय न तो बेचारे हैं और न ही कमजोर। बल्कि वे होशियार और अपने कायदे से जीने वाले ऊंचे लोग हैं । वे अपने पुरखों से सीखे सहज ज्ञान की परमपरा को जीवंत बनाए हुए हैं और उसे निरंतर आगे बढ़ा रहे हैं। उनकी शिक्षा उनके समाज की जरूरतों और प्रयोगों के हिसाब से मिलती है। ये लोग आज भी खरे हैं, उनमें जरा भी मिलावट नही है।

एक आम आदिवासी जंगल में सुअर की चाल को देखकर यह भांप लेता है कि जंगली फल- सब्जियां किधर होंगी । वह जानता है कि मलेरिया होने पर लाल चींटियों की चटनी (चापड़ा) खाना है। नदी में पानी के स्तर से वह यह अनुमान लगा लेता है कि कौन सी भाजी (मछली) प्रचुर मात्रा में मिलेगी।

जब जंगल में एक खास महीने मे खाने को कुछ नही रहता, तो वह इंद पेड़ की जड़ खाता है, सल्फी पेड़ का गुद्दा खाता है। और यह सब उसने जंगली सुअर से सीखा है, किसी पुस्तक में पढ़कर नहीं। उसे नासमझ कहकर, हम अपनी अज्ञानता का ही परिचय दे रहे हैं।

इन्हें विज्ञान की आंख से समझना जटिल है। यह छवि न नीति में दिखती है और न ही कार्यक्रमो में कहीं झलकती है। अपने विवेकहीन निर्णय से और उनके जीवन में फ़िजूल की दखलंदाजी कर हम उन्हें उनके सीखे हुए सहज ज्ञान की असीम परम्परा से दूर ही लेकर जाएंगे।

बस्तर क्षेत्र में चार आदिवासी समुदाय - गोंड़, हल्बी, मुरिया ओर माड़िया रहते हैं । ये सभी गोंड़ के ही उपभाग हैं। इनकी दो बोलियां हैं - गोंड़ी ओर हल्बी, जो द्रविड़ परिवार से भी पुरानी भाषा मानी जाती हैं।

ये समुदय सदियों से जंगल मे रह रहे हैं। इन्होंने अपनी जीवन शैली को उस जंगल की कलाबाजियों के अनुरूप ढाल लिया है। इनकी जीवन शैली वहां के पहाड़, नदी नालों , पेड़-पौधों और मिट्टी में रची बसी हुई है।

आदिवासी जीवन के केंद्र में साप्ताहिक हाट है, जो उनके लिए केवल बाजार नही हैं बल्कि अपनो से मिलने का उत्सव और अपना दुख - दर्द साझा करने का एक जरिया भी है। उनके जीवन की अधिकांश सांस्कृतिक गतिविधियां उसी हाट से तय होती हैं।

जंगल मे आदिवसी दूर- दूर रहते हैं। सप्ताह भर तक जंगल के उत्पाद एकत्रित करते हैं। और सप्ताह के अंतिम दिन सब लोग सज - धजकर सुबह ही साप्ताहिक हाट में पहुँच जाते हैं। वहां वो दिन भर रहते हैं, अपनी जरूरत के उत्पाद लेते हैं । दोपहर में जिसके यहां शादी होगी, वह आदिवासी गले मे ढोल टांगकर बजाते हुए पूरे हाट में शादी - विवाह की सूचना देता है । सामूहिक फसल कटाई, महुआ, ईमली तोड़ने का दिन निर्धारित किया जाता है, जिसे कटला कहते हैं। वहीं से गुनी लोग सार्वजनिक उत्सव की सूचना देते हैं।

आदिवासियों को वहां से हटाकर मुख्य बाजार, जहां पर सैलून आंध्र प्रदेश, दुकानें उत्तर प्रदेश ओर होटल राजस्थान के हैं, में लाने का प्रयास उन्हें उनकी संस्कृति से दूर ही लेकर जाएगा। सरकार ने साप्ताहिक हाट में जमीन पर बैठने के लिए दस रुपए की पर्ची लगाई हुई है, जो आदिवासियों को वहां से हटने को मजबूर कर रही है क्योंकि जितने का उत्पाद नही होता, उससे कहीं ज्यादा तो उन्हें पैसा देना पड़ेगा। हाट में वे लोग तो अपनी जरूरतों का आदान - प्रदान करते थे।

आदिवासियों के पोषण, उनकी आत्मनिर्भरता और लोक उत्सव का आधार कोदू और कुटकी है, जो पोषक तत्वों से भरपूर है। आदिवासी लोग महीने में एक जंगली सुअर का शिकार करते हैं और यह पूरा पारा(गांव) मिलकर करता है। और पूरा पारा मिलकर उसे पकाकर खाता है।

सरकार आदिवासियों के इलाकों में सहकारिता खेती के नाम पर कोदू - कुटकी के बदले फूल और केले की खेती कर रही है। गुजरात से आए लोग इस क्रियाकलाप को अंजाम दे रहे हैं।

इससे आदिवासी कुपोषित हुआ है और वह अपनी परम्परा और आत्मनिर्भरता के जीवन से दूर जा रहा है क्योंकि उसे पोषण के लिए, धान के दुकान की बाट जोहनी पड़ रही है। वो अपनी ही जमीन के पालक की बजाय मजदूर बन गया है। सामूहिक उत्सव बंद हो चले हैं । कोदू - कुटकी की फसल के समय वे लोकगीत गाते और नाचते - झूमते हुए फसल लेते थे । उससे उनका खाना बनता था । लेकिन अब क्या वो फूल का खाना बनाए?

यह ठीक वैसी ही स्थिति है जैसे अंग्रेजी राज में जबरन नील की खेती होती थी। आज बस्तर में जबरन फूल और केले की खेती हो रही है। जब हिंदुस्तान के हर किसान को यह तय करने का अधिकार है कि वो क्या उपजायेंगे तो, फिर हम आदिवासियों से यह अधिकार क्यों छीन रहे हैं? क्या वो इंसान, नागरिकता, अधिकार, लोकतंत्र ओर न्याय की कसौटियों से बाहर हैं?

शंकनी, डंकनी ओर इंद्रावती नदियां बस्तर की जीवनरेखा और आदिवासी संस्कृति की रूपरेखा बुनती हैं। ये नदियां ही जंगल में जीव -जंतुओं, पेड़ पौधों और आदिवासियों के जीवन का स्त्रोत हैं। आदिवासी नदी से तुम्बी (लोकी का खोल) भरकर सात कदम उल्टा चलता है, उसके बाद उसकी ओर पीठ करता है। यह स्नेह और सम्मान है नदी के प्रति। वे नदी का त्योहार मानते है, उसे पूजते हैं। इसमें नदी में उतर कर 21 बार पानी को ऊपर उठाकर नीचे डालना पड़ता है।

डंकनी नदी, जो बैलाडीला से निकलती है, में लौह - अयस्क की धुलाई की वजह से उसका पानी पीने लायक तो दूर नहाने के काबिल भी नही बचता। क्योंकि पानी को शोधित किए बैगेर ही नदी में छोड़ दिया जाता है। इसमें लोहे की मात्रा तय सीमा से 1000 गुना अधिक होती है। उसके साथ सीसा और पारा जैसी भारी धातुएं भी सीधे नदी में बहा दी जाती हैं। जो नदी किसी समय बीस किस्म की भाजी (मछली) देती थी, आज वो इतनी प्रदूषित हो चुकी है कि उसके पानी से बच्चों की किडनियां फेल हो रही हैं।

आदिवासियों की विवाह परम्परा बहुत ही सरल और ऊंचे आदर्शों को समेटे हुए है। वो मातृसत्तामक समाज है, जहां स्त्री के पास अधिकार ज्यादा हैं। वहां किसी प्रकार का दिखावा और दहेज की परंपरा नही है । विवाह की सब परम्परा महिलायें तय करती हैं। आदिवासी पुरुष को महिला के पारे में जाकर घर के सारे काम करके अपनी काबिलियत साबित करके दिखाना पड़ता है। उसके बाद ही महिला यह तय करती है कि उसे शादी करनी है या नहीं? लेकिन पिछले कुछ समय से सरकार सामूहिक विवाह के नाम पर वहां जंगल में फ्रीज, कूलर बांट रही है। हम अपनी गंदगी वहां भर रहे हैं। आखिर वहां सामूहिक विवाह के क्या मायने ? ऐसे विवेकहीन फैसले तो वो ही ले सकता है, जिसे उनके बारे में समझ नही हैं। बस्तर में बच्चों की शिक्षा के लिए पोटा केबिन चल रहे हैं । वहां ठेके पर नियुक्त शिक्षक बाहरी ज़िलों से हैं, जिन्हें शायद ही गोंड़ी या हल्बी भाषा बोलनी ओर लिखनी आती हो। जंगल में आदिवासी बच्चों को हिंदी भाषा नहीं आती, तो शिक्षा क्या और कैसे मिली? निश्चित तौर पर यह सोचने वाला बिंदु है। उनके सी. एस. आर. के पैसे से विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं - आई. ए. एस., पी. एम. टी., आई.आई .टी. आदि - की तैयारी के लिए दिल्ली की कोचिंग सेन्टरों को करोड़ों के टेंडर जारी किए गये। इन कोचिंग सेंटरों में शायद ही कोई बस्तर का आदिवासी बच्चा हो। जैसा कि प्रो गणेश देवी ने बताया है, आदिवासियों का ज्ञान तटस्थ ज्ञान नहीं है। बल्कि उसकी जीवन प्रक्रिया का हिस्सा है। अगर आदिवासी बचेगा तो ही उसका ज्ञान बचेगा। कोशिश उसकी जीवन प्रक्रिया को बचाने की होनी चाहिए। बस्तर का जंगल सौन्दर्य, रस, हिम्मत और उम्मीद का जीवंत साक्ष्य है । नीति और कार्यक्रम ऐसे होने चाहिए जो आदिवासियों और जंगल के रिश्ते को मजबूत बनाए। यदि यह संबंध बचा, तो उनकी कला और संस्कृति अपने - आप ही बच जाएगी।