हाल में अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन में प्रस्तुत एक शोध पत्र के अनुसार लगभग 1,25,000 वर्ष पहले भी तापमान अभी की तुलना में केवल 1 से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक था पर उस समय सागर तल 6 से 9 मीटर अधिक था. इन वैज्ञानिकों के अनुसार यदि तापमान बृद्धि की यही रफ़्तार आगे भी कायम रही तब अगले दो दशकों के भीतर ही दुनिया के अधिकतर सागर तटीय क्षेत्र डूब जायेंगे और अनेक महानगरों के नाम केवल इतिहास के पन्नों पर रह जायेंगे. उस काल में लगभग पूरे दक्षिणी ध्रुव की बर्फ पिघल गयी थी, जबकि इस बार पिछले 25 वर्षों के दौरान 3 ख़रब टन बर्फ पिघल चुकी है.

इंग्लैंड के मेट्रोलॉजिकल ऑफिस के वैज्ञानिकों के अनुसार इस वर्ष यानी 2019 में तापमान बृद्धि के सभी रिकॉर्ड के टूटने का अनुमान है. वर्ष 2018 तक तापमान पूर्व औद्योगिक काल, 1850-1900, की तुलना में 1.1 डिग्री बढ़ चुका है और इस साल इसके और बढ़ने की संभावना है. अब तक सबसे अधिक तापमान बृद्धि वर्ष 2016 में दर्ज किया गया था, जब 1.15 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ गया था. इस वर्ष प्रशांत क्षेत्र में एल नीनो भी प्रभावी रहेगा, इससे तापमान बृद्धि की दर अधिक रहेगी. वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर एडम स्कैफे के अनुसार 2019 के अंत तक के पूर्वानुमानों के आधार पर यह बताना कठिन नहीं है कि अब तक के 20 सबसे गर्म वर्षों में से 19 वर्ष 2000 के बाद के हैं. वर्ष 2019 के अंत तक 5 सबसे गर्म वर्ष 2015 के बाद के होंगे. इंग्लैंड के मेट्रोलॉजिकल ऑफिस के वैज्ञानिकों ने वर्ष 2017 के अंत में जो पूर्वानुमान वर्ष 2018 के तापमान के लिए लगाया था, वह बिल्कुल सटीक निकला था.

एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2018 के दौरान जलवायु परिवर्तन के 10 सबसे बड़े आपदाकारी प्रभावों के कारण कुल 50 अरब पौंड का नुकसान हुआ. तापमान बृद्धि के कारण अत्यधिक गर्मी, सामान्य से कई गुना अधिक बारिश, खेती में कम उत्पादकता, जल की कमी और सूखा की समस्याएं बढ़ रही हैं – इससे आर्थिक नुकसान के साथ साथ जान-माल की भारी हानि होती है. अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका के कुछ क्षेत्रों में फ्लोरेंस और माइकल चक्रवातों के कारण लगभग 18.5 अरब पौंड का नुकसान हुआ. अमेरिका के कैलिफ़ोर्निया समेत अन्य क्षेत्रों में जंगलों की आग से 5.2 पौंड से अधिक का नुकसान हुआ. जापान में बाढ़ और तूफ़ान के कारण 4.3 अरब डॉलर का नुक्सान उठाना पड़ा. अन्य महत्वपूर्ण आपदाएं थीं, यूरोप में सूखा और भीषण गर्मी, केरल में बाढ़ और चीन तथा फ़िलीपीन्स में तूफ़ान का प्रकोप.

पोलैंड में आयोजित कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज की 24वी बैठक (सीओपी 24) में बोलते हुए संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने पूरी दुनिया से आये प्रतिनिधियों को चेतावनी देते हुए कहा, अब भी तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कोई समझौता नहीं कर पाना और फिर इससे निपटने के लिए युद्ध स्तर पर कार्य नहीं करना केवल आत्मघाती ही नहीं है बल्कि यह अनैतिक भी है. तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए दुनिया के पास केवल 12 वर्ष हैं, और यदि अब भी इससे निपटने के लिए कदम नहीं उठाये गए तब हमें इसके बाद भी जिन्दा रहने की आशा छोड़ देनी चाहिए.

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझाने के लिए एक उदाहरण पर्याप्त है. तापमान बृद्धि से जितनी अतिरिक्त ऊष्मा होती है उसमें से 90 प्रतिशत को सागर और महासागर अवशोषित करते हैं और शेष ऊष्मा का प्रभाव वायुमंडल, जमीन और हिमशैलों और हिमखंडों पर पड़ता है. यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफ़ोर्ड की वैज्ञानिक लौरे जान्ना के अनुसार इस तापमान बृद्धि के असर से पिछले 150 वर्षों के दौरान महासागरों में इतनी ऊष्मा और ऊर्जा अवशोषित हो गयी है जितनी ऊष्मा इसमें हिरोशिमा में छोड़े गए परमाणु बम को पिछले 150 वर्षों के दौरान हरेक सेकंड छोड़े जाने पर अवशोषित होती. पिछले 20 वर्षों के दौरान तो यह दर बढ़कर 3 से 6 बम प्रति सेकंड तक पहुँच चुकी है.

जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि अब कोई कल्पना नहीं है, यह सामने है और इसके प्रभाव भी स्पष्ट हैं. लगभग हरेक दिन नए शोधों से इसके प्रत्यक्ष और परोक्ष परिणाम सामने आ रहे हैं. अब तो अनेक वैज्ञानिक अपने शोधपत्रों में जब भी वर्ष २०५० या आगे की चर्चा करते हैं तब उसके साथ यह भी जोड़ते हैं, “अगर उस समय तक मानव जाति विलुप्त नहीं हुई”. उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणी ध्रुव तक इसके परिणाम सामने आ रहे है, फिर भी इसे लेकर देशों द्वारा पहल में गंभीरता अब तक नजर नहीं आ रही है.

अक्टूबर 2018 में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने 1.5 डिग्री सेल्सियस की वकालत करते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी. इसमें बताया गया था कि तापमान बृद्धि इस समय की हकीकत है और वर्ष 2018 तक 1.1 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ चुका है, और इसके गंभीर परिणाम पूरी दुनिया में देखे जा रहे है. सेंटर ऑफ़ एपिडेमियोलॉजी ऑफ़ डीजीसेज के अनुसार वर्ष 2018 के दौरान तापमान बृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में 5000 से अधिक लोग मारे गए और लगभग 3 करोड़ लोगों को चिकित्सा सेवाओं की मदद की जरूरत पड़ी. यदि पेरिस समझौते का लक्ष्य 2 डिग्री से घटाकर 1.5 डिग्री सेल्सियस कर दिया जाए तब वर्ष 2100 तक अपेक्षाकृत सागर तल में कम बढ़ोत्तरी होगी, प्रजातियों के विलुप्तीकरण में कमी आयेगी और गर्मी, सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में कमी आयेगी.

पिछले 30 वर्षों से वैज्ञानिकों की लगातार चेतावनी के बाद भी पूरा विश्व तापमान बृद्धि को हलके में ले रहा है, और हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि आईपीसीसी के अनुसार सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तब अगले दशक के अंत तक ही तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका होगा.