कालबेलिया केवल साँप पकड़ने का या नृत्य का ही काम नही करते बल्कि ग्रामीण समाज मे बच्चे के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक का आधार यही लोग थे, बच्चे के जन्म पर पिलाई जाने वाली जन्म घुटी जो कि बच्चे में प्रतिरोधक क्षमता बनाती यही लोग जंगल से लेकर आते।

विभिन्न जड़ी बूटियों की जानकारी जितनी इन लोगों को है शायद ही किसी अन्य समुदाय को हो। हमारा आयुर्वेद का काफी ढांचा इसी तरहं के समाज के उपयोगी ज्ञान से बना है। इनके द्वारा तैयार की गई जो हरड की फांकी आज भी चलती है जो पेट गैस, कब्ज , जी मिचलाने, इत्यादि करगार ओर बेहतरीन इलाज है। सर्प दंश का ईलाज बड़ी खूबी से करते हैं। इनके नृत्य को तो हम सब देख ही रहे हैं। इंदौर के नजदीक एक गावँ में देवो नाथ कालबेलिया लोक गीत गा रहा था जो दिल को छू रहा था।

मोटर धीरा धीरं हांक, हाल बदन मैं जाय
ई मोटर मैं ,कूंन कूंन बैठी, कूंन गावः गीत।
कूंन सुहागन जलवा धोके , कूंन गावे गीत---

देवो नाथ ने बताया कि हमारे साथ यह कैसा न्याय है? हमारे नृत्य को तो राष्ट्रीय धरोहर बना दिया लेकिन उसको चलाने वालों को दुत्कार दिया। जब भिलवाड़ा में बड़ला चोराह, बालटों की खेड़ी, बीज गोदाम, करणी जाएंगे तो पाएंगे कि उनकी सुध लेने वाला कोई नही है। सच मे उनको दुत्कार दिया है।

जागा केवल पीढ़ियों के रिकॉर्ड ही नही रखते बल्कि हमारे पुरखों से संवाद करवाते, हमारे इतिहास लेखन का आधार तैयार किया। इनके द्वारा जुटाई गई जनकरी सबसे विश्वसनीय ओर प्रामाणिक स्त्रोत के रूप में हमारे पास है। हमारे पुरखों का सीखा हुआ ज्ञान, जिसका हमे कोई मूल्य नही चुकाना उसका आधार जागा रहा। जो हर वर्ष हमारी स्म्रति को नया बनाता। मेरठ के रामरतन जागा कहते हैं कि ग्रामीण भारत मे शादी का आधार हमारी जानकारी हुआ करती थी ।आज शादी के लिए विभिन्न साइट्स आ गई लेकिन क्या ये साइट्स पुरखों से भी बात करवाएंगी?

जोगी जब हाथ मे सारंगी लेकर घर आता तो गली मोहल्ले के लोग एकत्रित हो जाते । कंधे पर झोला टांगे, कान में मुरकी पहने हर बार कुछ न कुछ सुनाता" जैसे हरियाणा ओर राजस्थान में उनका एक चर्चित लोक गीत था-

छपनिया महाराज तेरे काजली रानी
अराः ब तो खुद पड़ी समंदर मैं पी गी पालरो पानी

हरियाणा के महेंदरगढ़ के माधोनाथ जोगी ने बताया कि जोगी इस लोक गीत में इतिहास की एक घटना का जिक्र कर रहा है वो कह रहा है कि जब छपनिया( छप्पन गांवों में) अकाल पड़ा तो वहां के सामंत ने अपने धान के कोठार खोल दिए थे उसकी रानी इस बात से नाराज थी कि हम अपना जीवन कैसे जिएंगे? ओर उसने कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली। जो ऐतिहासिक तौर पर सही बात है।

यह लोग मौखिक इतिहास की परंपरा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुचने का काम किया करते, जीवन को स्यम के साथ जीने का संदेश देते ओर बदले में एक मुट्ठी आटा लेकर जाते।

साठिया ओर रैबारी गाय और ऊंट के जरिए कृषि, व्यापर ओर परिवहन को बढ़ावा चलाने का काम किया करते, राजस्थान में मारवाड़ी ओर जम्मू कश्मीर में गुर्जर बकरवाल लोग भेड़ ओर बकरी पालते । कर्नाटक और महाराष्ट्र में अलग अलग नामों से बोला जाता। यह कृषि के लिए अछि नस्ल के बैल, समान के परिवहन के लिए ऊंट तैयार करते।

गाड़िया लुहार, कृषि कार्यों के लिए केवल लोहे के उपकरण ही तैयार नही करता था बल्कि गाय भैंस के सींग ओर खुरों को ठीक करने जैसा बारीक ओर महीन काम बडी ही सूझ बूझ के साथ करता था। उसकी नक्काशी ओर गोदना कला की रचनात्मकता को दर्शाती है। भिलवाड़ा के राम सिंह गड़िया लुहार ने बताया कि अब समय बदल गया है ,पारंपरिक पैसा समाप्त हो गया है लोग मशीनों से कम करवाना ज्यादा पसंद करते हैं। हम भी कहीं बस जाना चाहते हैं। लेकिन न सरकार सुनती हैं ओर न कोई संस्था। अब तो गावँ में डेरा भी नही डालने देते हम जाए कहाँ ? हमारे बच्चों का क्या होगा?

दाड़ी लोग शादी विवाह के मौके पर मंगल गान से लेकर घर मे छप्पर डालने का काम किया करता। बहरूपिया अलग अलग रूप बनाकर लोगों का मनोरंजन करता उसकी वाक्पटुता मन को मोह लेती। बाजीगर हाथ की सफाई तो कलंदर जंगल के जीवन को समाज के साथ जोड़ता, कहीं कहीं बाजीगर ओर कलंदर को एक ही बोला जाता है। बावरिया किसान की फसल रखुवाली से लेकर राजा के शिकार के समय हाँका लगाता था।

गड़बड़ कहाँ हुई?

इन सभी समुदायों के जीवन का आधार खेती हुआ करती थी। किसान अपनी फसल उपज का 1/10 वा हिस्सा इन समुदायों के लिए अलग निकालकर कर रख लेता था। ओर समय समय पर उनके हिस्से को उन समुदायों को देते रहता लेकिन जैसे जैसे हमारा सामाजिक आर्थिक ढांचा बदला , हमारी खेती का स्तर गिरा, किसान की हालत बदत्तर हुई वैसे वैसे वो जुगलबन्दी टूट गई। जिससे घुमंन्तु का पारंपरिक पैसा पीछे छूट गया।

चूंकि अब इनका पारंपरिक पैसा पिछे छूट गया इसलिए अब इन समाजों को भी एक जगह पर बसना होगा इसके लिए रहने को घर चाहिए, बच्चों को स्कूल, स्वास्थ्य के लिए अस्पताल ओर अनुपूरक पोषण के रूप में आंगनबाड़ी। रोजगार के अवसर ओर पूरक के रूप में मनरेगा भी चाहिए।

लेकिन इस मोर्चे पर हम फैल हो गए हैं, भारत मे घुमन्तु समाज के लाखों की संख्या में बच्चे स्कूल से बाहर हैं, अकेले राजस्थान में दो लाख, मध्य- प्रदेश में तीन लाख ओर छत्तीसगढ़ में यह आंकड़ा तीन लाख से ज्यादा है। घर के नाम पर फटा तंबू है। न विधवा पेंशन का पता हैं न आंगनवाड़ी का। अजमेर में घुमंन्तु समाज का मनरेगा के जॉब कार्ड तो बने लेकिन न जॉब मिली और न ही भत्ता। त्रासदी यह है कि उन्हें जीते जी ही मरने के बाद कि अपनी जमीन तलाशनी पड़ती है। पक्के मकान की तो बात ही छोड़ दीजिए। जो समाज हमारे वजूद का आधार रहा, आज वो ही समाज अपने वजूद की तलाश में हैं ।

संभावना क्या देते हैं?

आज से 10-15 साल के बाद यह बच्चे क्या करेंगे? जबकी इन बच्चों में असीम संभावनाएं हैं। इनको जरा सा तराश दिया जाए तो शायद हिंदुस्तान का नक्शा बदल सकता है। नट बच्चे खेलों में बेहतरिन कर सकते हैं। ओर यह कला उनको गॉड गिफ्टेड है अगर उसे जरा सा तराश दिया जाए तो हम चीन, ब्राजील इत्यादि देशों से बहुत आगे तक जा सकते हैं।

भोपा बच्चे सारंगी बेहतरीन बजाते हैं, भाट लोग गजब के कलाकार है कटपुतली नचाना से लेकर नाटक करना। बहरूपिया की वाक्पटुता । बंजारे बेहतरीन शिल्पकार, नक्काशी जानते हैं। लुहार लोहे का काम बड़ी बारीकी ओर सूझबूझ से करते हैं। कालबेलिया को सर्प दंश के इलाज के लिए एन्टी विनोम बनाने में लगा सकते हैं ।

क्या करें?

हमे यह भी ध्यान रखना होगा कि इनका ज्ञान, तटस्थ ज्ञान नही है बल्कि इनकी जीवन प्रक्रिया का हिस्सा है अगर यह लोग ही नही बचेंगे तो न इनका ज्ञान बचेगा ओर न ही यह समर्द्धशाली परम्परा ओर रंग बिरंगी संस्कृति बचेगी। घुमंन्तु समाज के लिए ठीक उसी तरहं का केंद्र बनाने की जरूरत है जैसे कि वडोदा में प्रो गणेश दैवी के नेतृत्व में आदिवासी जीवन की कला, साहित्य, परम्परा ओर जीवन शैली को सहेजने हेतु निर्मित किया गया है।

घुमंन्तु बच्चों के लिए रेसिडेंशियल स्कूल उपयोगी हो सकता है। उनको आधुनिक शिक्षा मीले लेकिन इसका यह मतलब नही है कि वो अपने पुरखों ओर समाज के उपयोगी ज्ञान से अलग हो जाए। उनको उसकी भी समझ हो। घुमंन्तु की मुख्य समाज के साथ होने वाली जुगलबन्दी तथा इनकी जीवन शैली पर गम्भीर शोध कार्य करने ओर उसे मुख्यधारा के समक्ष लाने की अत्यंत आवश्यकता है। किसान की स्थिति को सुधारें बैगेर घुमन्तु समाज के हितों ओर जीवन शैली का संरक्षण संभव नही है।

लेखक: स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट