सोशल मीडिया के जरिये आज भले ही विश्व की आबादी का बड़ा हिस्सा, इतिहास के किसी भी दौर की तुलना में, अधिक संख्या में एक दूसरे से जुड़ा है पर वास्तविकता यही है कि समाज में इसी सोशल मीडिया के चलते आज जितना बिखराव है वह पहले किसी दौर में नहीं रहा. अब लोग एक दूसरे से मिलते नहीं बल्कि सोशल मीडिया के माध्यम से मैसेज करते हैं. लोग अपने समाज को छोड़कर एक आभासी समाज का हिस्सा हो गए हैं. हालात इतने खराब हैं कि एक दूसरे से लगातार मैसेज के माध्यम से जुड़े रहने वाले लोग भी

हो रही है. मैसेज करने की आदत ने लोगों की भाषा ही बदल डाली है.

सोशल मीडिया इतना व्यापक प्रभाव पड़ रहा है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती. गौर से अपने आसपास के लोगों को देखें तो पता चलेगा कि आज के दौर में लोगों के विचार किसी विषय पर भले ही गलत हों पर उन्हें बदलना मुश्किल है. कारण स्पष्ट है, सोशल मीडिया पर आप अपनी मर्जी से अपने विचारों के अनुरूप एक ग्रुप तैयार करते हैं. ऐसे ग्रुप में सबके विचार एक जैसे ही होते हैं, यदि कोई आपके विचारों का विरोधी होता भी है तो आप उसे ब्लॉक कर सकते हैं या फिर उसके मैसेज को स्किप कर देते हैं. आज के दौर में बहुत बड़े आन्दोलन भी लगभग गायब हो चुके हैं, यह भी सोशल मीडिया की एक देन है. आन्दोलन तभी हो पाते हैं जब बहुत सारे लोग, जिनके विचार एक जैसे हों, वे आपस में मिलें और एक दूसरे की बातें सुनें और समस्याओं से इतने प्रभावित हों कि सडकों पर आन्दोलन के लिए उतर जाएँ. आजकल तो किसी समस्या से हम प्रभावित ही नहीं होते, और अगर बहुत गुस्सा करते भी हैं तो सोशल मीडिया पर एक-दो कमेंट लिखकर शांत हो जाते हैं. इन दिनों बड़े आन्दोलन केवल किसानों और मजदूरों ने किये हैं, और इनमें से अधिकतर सामान्य मोबाइल फोने वाले हैं, सोशल मीडिया चलाने वाले स्मार्टफोनधारी नहीं.

वर्तमान में इन्टरनेट चलाने वाली दुनिया की लगभग 51 प्रतिशत आबादी केवल अपने स्मार्टफोन से इन्टरनेट का उपयोग करती है, जबकि वर्ष 2025 तक ऐसा करने वाली आबादी 73 प्रतिशत तक पहुँच जायेगी. इन आंकड़ों से भले ही हम और हमारी सरकारें खुश हो लें पर स्मार्टफोन और सोशल मीडिया का यह दौर दुनिया को मानसिक तौर पर बीमार बना रहा है. हाल में ही मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों की अगुवाई में एक दल ने अपने अध्ययन में देखा कि सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग करने वाले लोगों का व्यवहार नशे के गिरफ्त में पड़े लोगों जैसा होने लगा है. लम्बे समय तक नशे की लत करने वालों में फैसला लेने की क्षमता कमजोर हो जाती है, ऐसे लोग गलत फैसला लेकर भी अपनी गलतियों से नहीं सीखते और मानसिक तौर पर अस्थिर हो जाते हैं. जर्नल ऑफ़ बिहेवियर एडिक्शन के नए अंक में प्रकाशित इस शोधपत्र के अनुसार यही सारे लक्षण सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग करने वाले लोगों में भी पनप रहे हैं.

अब तो अनेक वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक यह भी बताने लगे हैं कि हमलोग अधिक चीजों को याद रखने की क्षमता खोते जा रहे हैं और ध्यान नहीं दे पाते. इन विशेषज्ञों के अनुसार अब हम किसी भी वस्तु या घटना को मस्तिष्क में नहीं रखते बल्कि उसे मैसेज या फोटो के माध्यम से संजोते हैं. यदि हम किसी ऐतिहासिक इमारत को देखने जाते हैं तो हम वहां के आँख से देखे दृश्य याद नहीं रखते बल्कि सोशल मीडिया पर फोटो भेजने में लग जाते हैं. इस आदत के चलते वहां की विशेषताएं हमें पता ही नहीं चलती, फिर कभी अपनी ही भेजी फोटो को देखकर चौंक जाते हैं कि उस जगह पर ऐसा भी था जो मैंने उस समय नहीं देखा. किसी पार्टी में हमने क्या खाया यह भी याद नहीं रहता, इसे भी फोटो देखकर याद करते हैं.

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सोशल मीडिया का अत्यधिक उपयोग आत्मसम्मान को कम करता है. मनुष्य से मनुष्य की आत्मीयता प्रभावित करता है, याददाश्त कम करता है, नींद में बाधा पहुंचाता है, एकाग्रता भंग करता है और चिंता तथा अवसाद के कारण अनेक मनोरोगों और बीमारियों को जन्म देता है. आज के दौर में, जब सोशल मीडिया का उपयोग और प्रभाव बढ़ता जा रहा है, इसके बुरे प्रभावों पर ध्यान देना ही होगा नहीं तो हरेक आदमी बीमार होगा और समाज नशेड़ी जैसा व्यवहार करेगा.