आदिवासी का नाम सुनते ही हमारे सामने ऐसे लोगों की छवि उभरती है जो बहुत शर्मिले , शांत प्रिय, कोमल ह्रदय वाले लोग हैं. जो मुख्य धारा से कटे हुए, लुंगी बांधे, जंगल मे नाचते गाते हुए घुमते रहते हैं. जिनकी रंग बिरंगी जीवन शैली ओर अपने ख़ास तरीके के तीज त्योंहार हैं।

लेकिन क्या आदिवासी की पहचान के लिए यह सब पर्याप्त है? क्या आदिवासी का मतलब केवल उसका पहनावा, खानपान और नाचना - गाना है ? क्या उसके शांत और कोमल ह्रदय जैसे गुणों से आदिवासी का पूर्ण परिचय संभव है ? क्या मुख्य धारा से कटा होना और ख़ास प्रकार के तीज त्योंहार होना इस कमी को पूरा कर देते है ?

यह सभी आदिवासी की अलग अलग खूबियाँ बयान करती हैं न कि उसके सोच- विचार को बताती हैं. आदिवासी को उसके परिवेश में उस जंगल से उसके रिश्ते को बिना जाने, उसको परिभाषित करना संभव नही है .

इन सब विशेषताओं में यही कमी है, इनके आधार पर हमारा आदिवासी का विचार ही अपूर्ण, टूटा फूटा ओर बिखरा हुआ है। हम इसी अपूर्ण विचार को केंद्र में रखकर नीतियां बना देते हैं और फिर उनको लागू करने के लिए विभिन्न कार्यक्रम सुरु कर देते हैं।जिनका परिणाम हमारे समक्ष है। सबसे शांति प्रिय लोगों का इलाका ही सबसे अधिक हिंसा ग्रस्त है।

सरकारी आंकड़ें कुछ भी कहानी कहें लेकिन हकीकत में लाल गलियारा में अशांति निरंतर बढ़ रही है। अब उस अशांति का प्रतिनिधि केवल बाहरी व्यक्ति नही रहा बल्कि वो अशांति अब आदिवासी परिवार के अन्दर भी प्रेवेश कर गई है। आखिर इतने वर्षों से चली आ रही इस हिंसा से क्या हासिल हुआ ? क्या खोया ओर क्या पाया ? बस्तर क्षेत्र में हिंसा के प्रभाव से आदिवासी की परम्पराओं, जीवनशैली, उसकी रोजी रोटी को ही नही बदला बल्कि उसके समाज के सहज और उपयोगी ज्ञान से भी उसको दूर कर दिया. जंगल से उसके रिश्ते को समाप्त करने की जैसे कि एक अंतहीन कोशिश चल रही है।

लाल गलियारे में हिंसा से दिशा को समझने के लिए हमें आदिवासी ओर जंगल से उसके रिश्ते को समझना होगा. यदि जंगल को दिल मानें तो उसकी धड़कन आदिवासी है। जैसे ह्रदय के बिना धड़कन के कोई मायने नही है ठीक वैसे ही धड़कन के बिना ह्रदय का कोई वजूद नही है।

आदिवासी की जीवन शैली, उसकी सोच और संस्कृति जंगल, पहाड़, नदी, पेड़- पौधों और जीव जंतुओं में रची बसी है। आदिवासी न तो बेचारा है और न ही गरीब। वो लोग तो अपने कायदे से जीने वाले होशियार ओर ऊंचे दर्जे के हैं जो अपने पुरखों से सीखे समाज के सहज और उपयोगी ज्ञान की परंपरा को जीवंत बनाए हुए उसे निरंतर आगे बढ़ा रहे हैं।

यह ज्ञान उन्होने किसी डिग्री या डिप्लोमा ये अर्जित नही किया है बल्कि समाज की जरूरत ओर प्रक्रिया से हासिल किया हैं। उसके पास तो सृजित ज्ञान की अथाह पूंजी है जिसे एक जीवन मे समझ पाना भी नामुमकिन है. वह उसे न तो भुनाता है और न ही कोई दावा करता है। जंगल ओर जीव जन्तुओं से उसका रिश्ता जुगलबन्दी का हैं।

बस्तर क्षेत्र जो की लाल गलियारे का ह्रदय है, जहां पेड़ों की कलाबाजियां में खो जाने को दिल करता है. तीरथगढ़ ओर चित्रकोट झरने मन को मोह लेते हैं। कुतुम्सर की गुफा में हर कोई अपने आप को भूल जाना चाहता है। जहां की घाटियां, रंग बिरंगी तितलियाँ, फल ओर जंगली फूलों की गन्द में डूबी हुई हैं. लेकिन पिछले कुछ समय से यह क्षेत्र नक्सल गतिविधियों की वजह से ज्यादा चर्चा में रहा हैं।

बस्तर क्षेत्र में चार आदिवासी समुदाय गोंड़, हल्बी, मुरिया ओर माड़िया रहते हैं, यह मूल रूप से गोंड़ के ही उपभाग हैं। इनकी दो बोलिया हैं गोंड़ी ओर हल्बी जो द्रविड़ परिवार से पुरानी भाषा मानी जाती हैं। जंगल के बाहरी हिस्सों में ध्रुवा ओर भतरा समाज के लोग भी रहते हैं। यह दोनो बोलियाँ हैं जिनका कोई व्याकरण नही है ओर एक ख़ास बात दंतेवाड़ा की गोंड़ी ओर हल्बी सुकमा से ओर बीजापुर से अलग है।

बस्तर की संस्कृति का आधार -

जंगल मे आदिवासी दूर- दूर रहते है। उनके घर मिट्टी के बने होते हैं। जिनकी छत पर खपरैल या फुश होता है। उनकी आजीविका का मुख्य आधार जंगल के उत्पाद, नदी से भाजी (मछली) और पानी, उनके द्वारा उपजाया मोटा अनाज कोदू एवं कुटकी और जंगली सूवर होता है।

चूंकि जंगल मे आदिवासी दूर दूर रहते हैं इसलिए सप्ताह में एक दिन जिसे 'साप्ताहिक हॉट' बोला जाता हैं । वहां वे सब एक दूसरे से मिलते हैं । यह हॉट केवल एक बाजार नही बल्कि अपनो से मिलने का ओर दुख दर्द साझा करने का एक जरिया है। हाट आदिवासी संस्कृति का केंद्रबिंदु है। जहां से उनकी अधिकांश सांस्कृतिक गतिविधियां तय होती हैं।

आदिवासी लोग सुबह से ही सज धजकर अपने सप्ताह भर के वन के उत्पाद लेकर हॉट में पहुँच जाते हैं। जिस आदिवासी के घर में शादी होती है वो अपने गले मे ढोल टांगकर, उसे बजाते हुए पूरे हाट में शादी विवाह की सूचना देते हैं. वहीं से सामूहिक फसल कटाई, महुवा, ईमली ,तेंदुपत्ता ओर आम तोड़ने का दिन निर्धारित किया जाता है जिसे कटला कहते है।वहीं से गुणी लोग सार्वजनिक उत्सव की सूचना देते हैं।

इस हिंसा ने ओर विकास के नाम पर आदिवासी को दोहरा दंश झेलना पड़ रहा है। एक ओर तो उसे जंगल मे जाने पर रोक है तो वन उत्पाद कैसे लाएं वहीं दूसरी ओर उस उत्पाद को अपने साप्ताहिक हॉट में लाने पर , जमीन पर बैठने का 10 रु देना पड़ता है जिसे नगर निगम लेता है. इससे आदिवासी दोहरी मार झेल रहा है सरकार का प्रयास है उसे आधुनिक बाजार में लाने का वो बाज़ार कितना आधुनिक है यह कहना तो अलग है लेकिन इससे उस आदिवासी के जीवन की अन्य परम्पराओं का क्या होगा ?

मुख्य बाजार से कटला कैसे तय होगा ? कटला में सार्वजनिक फसल कटाई का दिन होता है, गुणी लोग यह देखते हैं कि फसल निकालने का वक्त आया है या नही, उस दिन पूरे पारे(गावँ) के लोग मिलकर सामूहिक खाना बनाते हैं, जिसे नया खानी बोला जाता है जिसका अर्थ है नई फसल का बना खाना, जिस भी फसल कोदू कुटकी, इमली, आम या धान जो भी निकलेगा पहले उसके पेड़ की पूजा होगी। पारे के सब आदिवासी लोक गीत गाते - नाचते उसे मनाते हैं। इस फसल में पारे के उन लोगों का हिस्सा भी होता है जो कमजोर, वृद्ध एवं असहाय है।

लेकिन मुख्य शहर के नजदीक पारे में मुख्य बाजार के प्रभाव में आने से यह कटला भी समाप्त हो गया है कोई इक्के दुक्के पुराने लोग करते हैं न ही नया खानी बनता है ओर न उन पेड़ों की पूजा होती है। जबकि बस्तर के हिंसा ग्रस्त क्षेत्र के अंदरूनी हिस्से में यह तीज त्यौहार मनाया जाता है। इससे आदिवासी की एक ख़ास पहचान सामूहिकता टूट रही है, सामाजिक न्याय का व्यवहारिक हिस्सा बाजार के गणित में आ रहा है जिसका सूत्र अधिक से अधिक लाभ लेना होता है।

जो लोग साप्ताहिक हॉट से निकलकर जो आदिवासी मुख्य बाजार में आए वह या तो होटल में बर्तन साफ करने वाले, गाड़ी धुलने वाले या बोरे उठाने वाले बने। दंतेवाड़ा के मुख्य बाजार में दुकाने उत्तर प्रेदेश, होटल राजस्थान ओर सैलून आंध्र प्रेदेश के रहने वाले लोगों के हैं वहां एक भी आदिवासी नही है।