मछुआरे हमारे समाज के हाशिये पर हैं. आम जनता को न तो इनसे कोई सरोकार है, न उनके बारे में कोई जानकारी. ऐसे में यह उचित होगा कि हम यह जानें कि मछली पालन क्या है और मछुआरों की ज़िंदगी क्या है.

8000 किलोमीटर से अधिक लंबा सागर किनारा देश के लिए प्रकृति के वरदान जैसा है. पश्चिम में गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र प्रदेशों से लेकर नीचे मुंबई और कोंकण की संकरी पट्टी में गोवा, रत्नागिरि, और भी नीचे कर्णाटक में मंगलूरु, आंध्रप्रदेश में विशाखापटनम, काकीनाड़ा, केरल, और तमिलनाडु, पुदुच्च्ररि को छूते हुए हमारे समुद्र पूर्व में पश्चिम बंगाल, ओडिशा, को भिगो कर हमें कुदरत के अकूत आशीर्वाद की याद दिलाते रह्ते हैं.

लोगों का जीवन अपनी भूगोल के आकार में ढल जाता है. समुद्र के पास रहने वाले लोगों का आहार भी समुद्र तय कर देता है. गुजरात में जैन और वैष्णव परंपराओं के चलते शाकाहारी भोजन की आदत रही है, लेकिन अन्य प्रदेशों में समाज के बहुत बड़े वर्ग के लिये मछली आहार का एक अभिन्न अंग है. और किनारों के पास रहने वाले लोगों के लिये तो सिर्फ़ मछली नहीं, केकड़े, जैसे अन्य समुद्री जीव भी खाद्य चीज़ हैं. देश में समुद्री मछली पकड़ना, उनके अण्डे से मछलियों को तैयार करना एक बहुत बड़ा व्यवसाय है जो देश के करोडों लोगों को रोज़गार देता है.

न केवल समुद्री मच्छीमारी, देश के अंदर भी अनेकों नदियाँ, नहरें, झीलें, पोखर, तालाब हैं जहाँ मछली करोडों के जीवन का आधार और आहार का एक हिस्सा है. 40 लाख से अधिक मछुआरे अथवा मछली पालक और उनके परिवारों के 2 करोड़ सदस्य इन अंतर्देशीय जलस्रोतों के भरोसे जी रहे हैं. यही तो है हमारा देश, जहाँ अथाह जल, जंगल, उर्वरा ज़मीन, वृक्षों, फलों और फूलों की मन मोहिनी दुनिया चहचहाती है. इस देश को ‘सुजलाम सुफलाम’ कहा है वह कोरी गप नहीं है.

समुद्री और अंतर्देशीय, अथवा खारे और मीठे पानी के मछली स्रोत देश के 5 करोड़ से अधिक नागरिकों के, मतलब कि क़रीब 4% जनता के जीवन का सहारा है. लेकिन आज इन मछली पालन क्षेत्र के हर श्रमिक का हाल बेहाल है. जीवन के सबसे कड़े संघर्ष के दौर से वह गुज़र रहा है.

क्या है उसकी समस्या? वैसे तो उसकी समस्या वही है जो किसी किसान की, मज़दूर की है – रोज़गार पर बड़ी पूंजीवादी ताक़तों का हमला, आमदनी की सुरक्षा ख़तरे में, रोज़ीरोटी का साधन छिन जाने का भय, जब तक शरीर साथ दे तब तक काम करते रहने की मजबूरी, बूढ़ापे के लिये कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं, जीवन और स्वास्थ्य सुरक्षा के लिये कोई प्रावधान नहीं. मछली पालन का क्षेत्र ऐसा है जिसे पानी तो चाहिए लेकिन पानी का ख़र्च नहीं होता. मछली को चाहिए शुद्ध पानी. प्रदूषण मछली का दुश्मन है. मछुआरा इस तरह पानी का संरक्षक है.

लेकिन बड़े पूंजीपतियों को मछली से ज़्यादा दिलचस्पी है मुनाफ़े में है. ऐसा करने में अग़र पानी और मछली का नाश हो तो भी क्या, इसका खामियाज़ा तो आने वाली पीढ़ियों को भुगतना है. उदारीकरण के दौर में समुद्र और नदियों का व्यापारीकरण किया जा रहा है, बड़े जहाज़ मछली पकड़ने में इस्तेमाल में लाये जाते हैं, जिसमें बडी मशीनें लगी रहती हैं जो एक साथ टनों मछलियों को क़ैद कर लेती हैं. और मछुआरा सरकार से गुहार लगाता है – “कम-से-कम बड़े पूंजीपतियों को समंदर के किनारे के पास से मछलियाँ पकड़ने से तो रोको; हमें केवल यहीं से मछली मिलती है; हमारा पानी भी इन्होंने बर्बाद कर दिया है; प्रदूषण के मारे किनारे के पास मछलियों का स्टाक कम हो गया है. इतना ही नहीं हम तो उन बच्चा मछलियों को छोड़ देते हैं जिन्हें अभी बड़ा होना है, अपना वंश चलाना है. ये बड़े जहाज़, बड़ी मशीनें तो ऐसा कुछ करती नहीं हैं, और मछलियों का वंशनाश हो रहा है, जो भ्रूणहत्या जितना ही जघन्य अपराध है. बड़ी कंपनियाँ मुनाफ़े के लिये नई नई प्रजातियाँ लाती हैं जो स्थानीय मछलियों को खा जाती हैं. इससे प्राकृतिक जैविक संतुलन गड़बड़ा गया है. मछलियों का अपना परिवेश होता है. उस परिवेश पर ही हमला हो रहा है.”

लेकिन सरकार – केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों - को लगता है कि छोटे मछुआरों की उत्पादकता कम है. मशीनें उत्पादकता बढ़ा सकती हैं. मशीनें जो कर सकती हैं उससे ही मछली पालन एक ठोस पैसा कमाने का ज़रिया बन सकता है.

मुनाफ़े की इस अंधाधूँध होड़ छोटे मछुआरों, छोटे मछली पालक, मछलियों को सुखाने वालों, बेचने वालों, मछली का अचार, पापड़ वगैरह बनाने वालों को बर्बाद कर रही है. सरकार इससे बेख़बर नहीं है कि आर्थिक विकास का यह माडल आम आदमी को कुचल रहा है, लेकिन सरकार ने अपना पक्ष चुन लिया है. देश की जी.डी. पी. बढ़नी चाहिए, उत्पादकता बढ़नी चाहिए, चाहे छोटे लोगों की मानवीय गरिमा चूरचूर हो जाए.

इन छोटे लोगों का अपनी ही जीविका पर नियंत्रण नहीं है. उनके कोई अधिकार नहीं है, उनके उत्पाद को संग्रह करके रखने में भी उनका बस नहीं चलता. जहाँ वे काम करते हैं वहाँ शौचालय तक नहीं होते. उनको जो चाहे, जब चाहे, बेदख़ल किया जा सकता है. जैसे शहरों में झुग्गियों को बुलडोज़र रौंद डालते हैं वैसे ही आर्थिक विकास का बुलडोज़र जल जैसी प्राकृतिक देन के भरोसे जीने वाले मछुआरों के जीवन को रौंद रहा है.

नदियों के किनारे और सागरतट अब विलासी होटेलों और फ़ैक्ट्रियों से लैस हैं और मछुआरों कि नई पीढ़ी अपना काम छोड़कर किसी शहर में मज़दूर बनने के लिये मजबूर होती है. आज न केवल इस क्षेत्र का पारंपरिक रूप ख़त्म हो रहा है, एक नया रूप उभर रहा है जिसमें सब मज़दूर होंगे – मज़दूर तो मज़दूर है ही, किसान, मछुआरा, हर कोई जो किसी अन्य पर बोझ बनता नहीं, मज़दूर बन जाएंगे – ‘सबका मालिक एक’ – धन्ना सेठ!

मछुआरों की समस्याएं आज तक चर्चा का विषय नहीं बनी. किसानों ने तो देश को हिला दिया है. लेकिन क्या देश की अंतरात्मा भी हिली या नहीं, यह सवाल अभी उत्तर तलाशता है.