आदिवासी की लोक कहावत के अनुसार उसे जंगल मे हर दिन 14 कोश पैदल चलना होता है. आदिवासी ने अपने रोज़मर्रा के जीवन को इस कदर ढाला हुआ है जहां उसे इतना पैदल चलना पड़े, आदिवासी जंगल के चप्पे चप्पे से वाकिफ है, जैसे मौसम बदलता है, जंगल का रंग बदलता है वैसे ही आदिवासी की दिनचर्या बदल जाती है। कभी इमली का समय, कभी आम तो कभी तेंदुपत्ता, कभी महुवा तो कभी कोदू- कुटकी.

सुबह भोर में उठकर माटी को प्रणाम कर नदी से पानी लाता है, नदी को पीठ नही दिखाता बल्कि सात कदम उल्ट दिशा में चलता है फिर घूमता है। धान का पानी जिसे पेज बोला जाता है उसे पिता है। गर्मियों में मड़िया का पेज बनाता है जो कि ठंडा रहता है और तुरंत ऊर्जा देता है वह सर्दियों में धान का पेज बनाता है। उसके बाद सभी लोग जंगल मे निकल जाते हैं लोक गीत गाते हुए सुखी लकड़ी लाना, वन उत्पाद जैसे कि जंगली फल- फूल एकत्रित करना, शहद- मोम, जड़ी बूटियां लाना। हर दिन उनके लिए उत्सव के समान है। उनकी हर दिन जंगल मे अलग दिशा होती है ।

आदिवासी महिला पेड़ों पर ऐसे झूलती है जैसे कि वो दोनो एक दूसरे के लिए ही बने हों। दोपहर तक वो वापस आते हैं लेकिन वापस लौटते समय बीच मे वो अपने परिवार के साथ अपने पुरखों के याद में लगाए स्म्रति स्तंभ के नजदीक करीब दो घंटे बैठते हैं वो रोजाना अपने पुरखों को याद करते हैं अपने बच्चों को उनके बारे में बताते हैं , वो यह कहते हैं कि उनके पुरख़े कितने गुणी ओर हिम्मती थे जो यह जंगल फलों से लदा हुआ, नदी भाजी से भरी हुई उनके लिए छोड़कर गए हैं। वो अपने श्रम का उस श्रम से संवाद करते हैं जो बीत गया है।

घर आकर, पेज पीने के बाद पारे के सभी महिलाएं एक स्थान पर बैठकर लोक गीत गाते हुए स्याडी पत्तों से डोने ओर पत्तल बनाएंगी, जबकी पुरुष अपने वन उत्पाद को छटनी करना या तेंदूपत्ते की गठरी बनना का काम करेंगे, लेकिन पुरुष और महिला सभी काम करेंगे। सप्ताह में एक दिन नदी से मछली पकड़कर लाना उसे सुखाना, सप्तह में एक बार अपने घर को पीली मिट्टी से लीपना। महीने में पूरा पारा मिलकर एक जंगली सूवर का शिकार करता है और मिलकर ही पकाकर खाता है।

सरकारी कानून बनने, लाल गलियारे में होने वाली हिंसा की वजह से आदिवासी जंगल के अंदरूनी हिस्से में नही जा सकता जबकि जंगल के अधिकांश उत्पाद उसको अंदरूनी हिस्से में ही मिलते हैं। जंगली सूवर का शिकार पर रोक लगा दी। इन्द पेड़ की जड़ और उसका गुद्दा नही खा सकता। सुखी लकड़ी नही ले सकता पहले अनुमति लेनी पड़ेगी। इससे आदिवासी अपनी परम्परा से दूर होता जा रहा है उस जंगल से उसका लगाव हटता जा रहा है। उसे मजबूरन आजीविका के लिए जंगल से बाहर जाना पड़ रहा है। पिछले काफी समय में जंगल से प्रवसन बढ़ा है। कहीं कही पर वो समाज विरोधी गतिविधि में भी शामिल हो रहा है।

आदिवासी के पोषण के सूत्र-

कोदू ओर कुटकी तो आदिवासी के पोषण ओर उनके आत्मनिर्भरता के सूत्र हैं। यह पोषक तत्वों से भरपूर मोटे अनाज के वर्ग में शामिल होते हैं। चापड़ा ( लाल चींटियों की चटनी) उनका प्रिय पदार्थ है। आदिवासी लोग महीने में एक जंगली सुवर का शिकार करते हैं और यह पूरा पारा(गावँ) मिलकर करता है। ओर पूरा पारा मिलकर ही उसे पकाकर खाता है। महुवा, लांदा ओर सल्फी उनके पेय पदार्थ हैं।

लेकिन लाल गलियारे में हिंसा तथा सहकारिता के नाम पर जंगल मे फूल और केले की खेती हो रही है । आदिवासी कुछ बोल नही सकता क्योंकि उसके पास जमीन का पट्टा नही है। कुपोषणता के साथ आत्म निर्भरता का जीवन छोड़कर अब वो राशन आपूर्ति की दुकानों पर निर्भर हो रहा है। यह ठीक वैसे ही है जैसे अंग्रेजी राज में जबरन नील की खेती होती थी। आज बस्तर में जबरन फूल और केले की खेती हो रही है जब हिंदुस्तान के हर किसान के पास यह तय करने का अधिकार है कि वो क्या उपजाएँगे तो फिर हम आदिवासी से यह अधिकार क्यों छीन रहे हैं ?

जंगली सूवर की संख्या घट रही हैं उनको व्यापक पैमाने पर मारकर बाहर बेचा जा रहा है क्योंकि वो फूल और केले की फसल को नुकसान पहुचाते हैं। आदिवासी जंगल मे जंगली सूवर की चाल देखकर यह अंदाजा लगा लेता था कि जंगली फल फूल किधर मिलेंगे अब वो उनसे वंचित होता जा रहा है।

बैलाडिला में लोहे की धुलाई होती है इससे वहां डंकनी नदी का पानी पीने लायक तो छोड़िए नहाने लायक भी नही बचता दंतेवाड़ा में तोयलंका में नदी का पानी 1000 गुना ज्यादा लोहा रहता है पता नही क्या शोधित करते हैं। इससे जहां आदिवासी को पहले 20 प्रकार की भाजी (मछली) मिलती थी अब नदी से मछली नही मिल रही। आदिवासी वहाँ से निकलने पर मजबूर है।

समाज का सहज और उपयोगी ज्ञान-

जंगल मे फल फूल किस दिशा में मिलेंगे यह आदिवासी सूवर की चाल देखकर हिसाब लगा लेता है, नदी में पानी किस स्तर का आया है इससे कौनसी भाजी प्रचुर मात्रा में मिलेगी यह उसका सिखा हुआ ज्ञान है किसी किताब में पढ़कर हाशिल नही किया.

मलेरिया हुआ तो चापड़ा खाता है, बुइलिंग खाता है, घाव हो गया तो पेड़ के पत्ते को पिसकर लगा लिया, जहर मारक बूटियों का उसे बेहतरीन ज्ञान है शायद यह विज्ञान के चश्मे से फिट न बैठें लेकिन वो इसे जीता है। आदिवासी मार्च के महीने में नदी में मछली पकड़ने नही जाते क्योंकि उस समय मछली अंडे देने के लिए नदी की ऊपरी धारा में आ जाती है . यह उसके पुरखों से सीखा ज्ञान है। जब जंगल के एक ख़ास महीने में कुछ भी खाने को नही रहता तो वो आदिवासी इंद पेड़ की जड़ और गुद्दा खाता है यह उसने जंगली सूवर से सीखा है। वो न इसका पेटेंट मांगता है और न ही अपने ज्ञान का डंका पिटता है।

इस ज्ञान को किसी डिग्री या डिप्लोमा में नही सीखा जा सकता है. इस ज्ञान का हमे कोई कीमत नही चुकानी लेकिन लाल गलियारे की हिंसा उस ज्ञान से समाज को निरंतर दूर कर रही है उस सम्रधशाली परम्परा को समाप्त कर रही है. जब नदी में पानी होगा नही प्लास्टिक की टँकीयों से पानी आएगा, जंगली सूवर नही होंगे, आधुनिक दवाई लेने का दवाब डालेंगे तो जाहिर सी बात है वो अपना पारम्परिक ज्ञान को खो देगा।

बस्तर में आदिवासी बच्चों को आधुनिक शिक्षा के नाम पर पोटा केबिन चल रहे हैं । वहाँ नियुक्त शिक्षक बाहर के हैं तो उनमे शायद ही किसी को गोंड़ी या हल्बी भाषा बोलनी ओर लिखनी आती हो। जंगल मे आदिवासी बच्चों को हिंदी नही आती। शिक्षा क्या मिली यह सोचने वाला बिंदु है? उल्टा उनके सी. एस. आर. के पैसे से दिल्ली की कोचिंग्स को आईएएस की तैयारी के करोड़ों के ठेके दे दिए।

शादी- विवाह और सामाजिक व्यवस्था पर प्रभाव-

आदिवासी की विवाह परम्परा बहुत ही सरल और ऊंचे आदर्शों को समेटे हुए है, वो मातृसत्तामक समाज है. जहां स्त्री के पास अधिकार ज्यादा हैं। वहां किसी प्रकार का दिखावा ओर दहेज की परंपरा नही है । विवाह की सब परम्परा महिला तय करती है। सबसे अंतिम काम आदिवासी पुरुष को महिला के पारे में जाकर घर के सब काम करके अपनी काबिलियत साबित करके दिखने पड़ते हैं उसके बाद महिला यह तय करती है कि उसे शादी करनी है या नही ?आदिवासी के पारा में चिरिया - गुणीया लोग होते हैं जो समाज के मुख्य निर्णय लेते हैं लेकिन वो निर्णय सभी की सहमति से होता है। भले आदिवासी समाज मे न्याय, समानता, स्वतंत्रता जैसे शब्द नही है लेकिन वो समाज इनका सबसे अधिक अपने जीवन मे पालन करता है। लेकिन पिछले कुछ समय से सरकार, सामुहिक विवाह के नाम पर वहां जंगल मे फ्रीज, कूलर बांट रही है। वहां वोही दहेज की गंदगी भर रही है। निर्णयों पर पंचायत के फैसले हावी हैं. आदिवासी के लिए सामूहिक विवाह का मायने क्या? ऐसे विवेकहीन फैसले तो वो ही ले सकता है जिसको उनके बारे में समझ नही हैं।

जंगल के रिश्ता -

आदिवासी जंगल के नखरे उठाता है, उसे पता है यदि वो बेसुद हो गया तो जंगल बेहया हो जाएगा. उसके लोक गीतों, त्यौहारों, विवाह पद्धति ओर रोज़मर्रा के कार्यों में जंगल के प्राकृतिक संरक्षण के बिंदु मिलते हैं। बारिश के मौशम से पहले यह व्यवस्था करता है कि नदी का पानी जंगल के चप्पे चप्पे तक पहुँचे इसके लिए उसके बहाव को ठीक करता है, गाद निकालता है और इसे उसने अपने तीज त्योहार से जोड़ लिया। बारिश से पहले लोकी के खोल को नदी में ले जाकर 21 बार पानी को ऊपर उठकर डालता है ,उसके बाद सात कदम उल्टा चलकर उसको पीठ दिखाता है, शादी में महुवा, तेंदुपत्ता या बांस की लकड़ी के इर्द गिर्द सभी क्रियाकलाप होते हैं। उस महिला और पुरुष को जीवन भर उस प्रजाति के पेड़ों को सहेजना है। जंगल मे व्यवस्था को बनाए रखता है अगर कोई बड़ा पत्थर पड़ा है तो उसको हटाना तो दूर वो उसको उलंगना भी नही उसका मानना है कि जंगल की सारी व्यवस्था जुड़ी हुई है। यह प्रेम ओर सम्मान है उस जंगल के प्रति ।

लेकिन अब जैसे जैसे जंगल मे बाहरी प्रेवेश बढ़ा है , हिंसा बढ़ी वैसे वैसे आदिवासी की अपने जंगल से जुगलबन्दी टूटी है। आदिवासी एक तरह के उधेड़बुन में हैं कि वो क्या करें और कहां जाए ? इसी का नतीजा है आदिवासी का प्रवसन बढ़ा है. दंतेवाड़ा के कटेकल्याण ओर तोयलंका से करीब दो हज़ार से ज्यादा आदिवासी आंध्र प्रेदेश में चले गए हैं जिसमे एक कारण सेना और पुलिस से जुड़े मामले भी है।

इन सबका परिणाम आदिवासी का जंगल से नाता टूट रहा है, वो ऐसे क्रियाकलापों में साझेदार बन रहा है जो उसके ओर जंगल के लिए घातक साबित होंगे।