प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का स्वच्छ भारत मिशन पूरी तरह शौचालयों पर ही केन्द्रित है. इस मिशन के तहत देश में खूब सारे आधे-अधूरे शौचालय बनाए गए और इसके साथ ही सेप्टिक टैंक भी. शहरी विकास मंत्रालय द्वारा 2014 में प्रकाशित गाइडलाइन्स फॉर स्वच्छ भारत मिशन के अनुसार 2011 की जनगणना के अनुसार शहरी आबादी 37.7 करोड़ थी जो 2031 तक बढ़कर 60 करोड़ तक पहुँच जायेगी. इस आबादी में से 80 लाख लोग खुले में शौच कर रहे थे. पानी की गन्दगी से स्वास्थ्य की समस्याएं बढ़ जातीं हैं और शहरों से अनुपचारित मलजल ही देश में जल प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण है. पर, शौचालयों के लिए जो दिशा निर्देश हैं वह पानी को और प्रदूषित करने के लिए पर्याप्त हैं.

दिशानिर्देश के अनुसार, यदि शौचालय का निर्माण उपलब्ध सीवरेज प्रणाली के 30 मीटर के दायरे में है तब शौचालय को सीधा इस सीवरेज प्रणाली से जोड़ना है, और यदि 30 मीटर तक कोई ऐसी प्रणाली नहीं उपलब्ध है तब शौचालय के साथ सेप्टिक टैंक भी बनाना है. पर्यावरण संरक्षण के प्रति हम कितने लापरवाह हैं, यह दिशानिर्देश इसका एक अच्छा उदाहरण है. जब सरकार को यह मालूम है कि अनुपचारित मलजल, जो सीवरेज प्रणाली के माध्यम से नदियों में मिलता है, और यही इन नदियों में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण भी है तब भी नए शौचालय इसी तंत्र से जोड़े जा रहे हैं. इससे तो सीवरेज तंत्र का प्रदूषण और बढेगा और हमारी नदियों का भी.

दूसरी तरफ, सेप्टिक टैंक को बड़ी सुरक्षित प्रणाली हमारे देश में समझा जाता है, जबकि भूमि और नदियों में इससे लगातार प्रदूषण बढ़ता है. मानव और मवेशियों के मल में बैक्टीरिया का एक समूह, फीकल कोलिफौर्म, होता है और हमारे देश की सभी नदियों में इसकी उपस्थिति तय मानक से कई गुना अधिक होती है. पर, पानी में इसकी सांद्रता लगातार बढ़ रही है और हमारे देश में केवल विभिन्न जगहों पर इसकी सांद्रता मापने के अलावा कुछ नहीं किया जाता.

इंग्लैंड के लेइब्निज़ इंस्टिट्यूट ऑफ़ फ्रेशवाटर इकोलॉजी एंड इनलैंड फिशरीज और स्कॉटलैंड के यूनिवर्सिटी ऑफ़ एबरडीन के वैज्ञानिकों के संयुक्त दल के अनुसार नदियों में फीकल कॉलिफोर्म की संख्या तो देखी जाती है, पर इसका नदियों में विस्तार कैसे होता है और आसपास के वातावरण का क्या असर होता है इसपर दुनियाभर में अनुसंधान नगण्य है. इस दल ने फीकल कोलीफार्म कहाँ से आया, उसकी संख्या, पानी के बहाव, और नदी तंत्र का विस्तृत अध्ययन करने के बाद एक गणितीय मॉडल तैयार किया है, जिससे नदी में किसी भी स्थान पर फीकल कोलिफौर्म की सटीक जानकारी मिलती है. इस मॉडल का उपयोग कहीं भी किया जा सकता है, बशर्ते सभी जानकारियाँ मौजूद हों. निश्चित तौर पर, हमारे यहाँ की सरकार और प्रदूषण नियंत्रण से सम्बंधित संस्थान इस मॉडल का उपयोग नहीं कर पायेंगे क्योंकि हमने जगह - जगह इसकी संख्या को मापने के अलावा कुछ किया ही नहीं है और न ही भविष्य में कोई ऐसी योजना ही है.

दूसरी तरफ, अमेरिका के जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल अकैडमी ऑफ़ साइंसेज में जोआन रोज की अगुवाई में प्रस्तुत एक शोध पत्र ने सेप्टिक टैंक पर ही गंभीर सवाल उठायें हैं. इस अध्ययन को नदियों से सम्बंधित सबसे बड़ा अध्ययन कहा जा रहा है. इसके अनुसार सेप्टिक टैंक से फीकल कोलीफार्म को आप भूमि या नदियों में जाने से नहीं रोक पाते हैं. वैज्ञानिक जगत में यह सबसे बड़ी भ्रान्ति है कि भूमि मानव और मवेशियों के मल के लिए प्राकृतिक उपचारण का काम करती है. प्रचलित धारणा के अनुसार नदी के उन क्षेत्रों में जहां सेप्टिक टैंक की संख्या सबसे अधिक है, वहाँ नदी में फीकल कोलिफौर्म की संख्या कम होनी चाहिए थी, पर इस दल ने अपने अध्ययन में ठीक इसका उल्टा पाया.

इतना तो स्पष्ट है कि सरकारों और सरकारी संस्थाओं की पर्यावरण संरक्षण के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं है. एक जगह का कचरा उठाकर बस दूसरी जगह ड़ाल देते हैं. हरेक क्षेत्र में ऐसा ही हो रहा है. सडकों के किनारे से कचरा उठाकर लैंडफिल साइटों पर इसका पहाड़ बना रहे हैं. नालियों को साफ़ करने के बाद उससे निकला कीचड उसके किनारे ही जमा कर देते हैं जो सूखने के बाद धूल बनकर हवा के साथ बड़े क्षेत्र में फ़ैल जाता है, या बारिश के साथ वापस नाले में मिल जाता है. यही हम स्वच्छ भारत के मिशन के तहत भी कर रहे हैं, गन्दगी जमीन पर नहीं दिखे इसलिए इसे नदियों में मिलाने को तत्पर हैं. दूसरी तरफ देश की हजारों नदियों में से गंगा का नाम लेते हैं और कभी-कभी यमुना का भी.