राजस्थान के रेगिस्तान की मिट्टी पर आश्रित घुमंतू समाज अपना पुश्तैनी व्यवसाय को छोड़कर मजदूरी करने को विवश हो रहा है. सरकारी नीतियों व कार्यक्रमो में उनके लिए कोई स्थान नहीं है यह लोग चुनावी समीकरणो से कोसों दूर है.

कैलाशी व घासीराम भोपा उम्मीद हार चुके हैं और निराशा भरी जिंदगी को रोज की तरह ढो रहे हैं जिस पाबूजी की फड़ और रावणहत्थे (सारंगी जैसे लोक वाद्य ) को अपनी माँ समझते थे, आज वह उनका पेट भरने में भी सक्षम नहीं है. अब वो लोग उसे छोड़कर शहर में मजदूरी करने जाते हैं, बजरी खनन पर रोक लगने से मजदूरी भी बंद पड़ी है. कभी काम मिल जाता है और कभी ऐसे ही रहना पड़ता है.

अजमेर जिले के पुष्कर में रहने वाले घासीराम और कैलाशी नायक भोपा समाज से आते हैं उनके पुरखे सदियों से पाबूजी की फड़ बाचते रहे हैं और राजस्थान के मौखिक इतिहास की समृद्ध परंपरा को सारंगी के धुन पर सुनाते रहे हैं. फड़ एक कपड़ा होता जिसपर बहुत से चित्र बने होते हैं, इन चित्रों को रावणहत्थे की धुन पर कहानी में पिरोते हैं और भोपी पीछे से टेर लगाती है. आज जिसे स्टोरी टेलिंग कहा जाता है, वो काम तो भोपा समाज सदियों से कर रहा है.

ये लोग नायक समाज से संबंधित हैं, जिन्हें देवी देवताओं की स्तुति, रात्री- जागरण, आख्यान, भजन- कीतर्न करने के कारण भोपी जी की पदवी मिली हुई है. इसलिए, इनको नायक भोपा बोला जाता है. वैसे तो यह समाज राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, मध्य-प्रदेश इत्यादि राज्यों में फैला है, किंतु राजस्थान के जोधपुर, अजमेर, नागौर, जैसलमेर और पाली जिले में इनकी बहुलता है. इनका अपना ख़ास लोक वाद्य रावणहत्था है, जो बांस की लकड़ी से बना होता है जिसपर घोड़े की पूंछ के बाल पर खींची तान, एक सिरे पर नारियल के खोल की टोपली ओर उसके ऊपर लिपटी भेड़ की खाल जब बजता है तो रेगिस्तान की आवाज सुनाई देती है. इनके लोक गीतों में हमारे सामाजिक सरोकार, मजदुर,किसान और स्त्री मुक्ति की धुन है.

अजमेर के कायड़ चौराहे पर रहने वाली कैलाशी ने बताया कि आज कोई पाबूजी की फड़ सुनना पसंद नही करता, न कोई लकड़ी की मूर्ति खरीदता है. अब डी जे का जमाना आ गया है और लोग धातुओं की मूर्तियां खरीदते हैं. उसने कहा, “हम पिछले 20 वर्ष से यही तंबू डालकर रह रहे हैं. हम कहाँ जाएँ, न जमीन का पट्टा है और न बच्चों को स्कूल. न हमें अनाज मिलता है और न बुढापे की पेंशन. हमारे टोले में 50 बच्चे हैं, पर कोई स्कूल नही जाता. पहले बढेरे/ बुजर्ग फड़ बाचते थे, सारंगी बजाते थे, तो हम पीछे- पीछे टेर लगाते थे. आज हम चुनावों में टेर लगाते हैं, ठेकेदार एक दिन का 200 रु और खाना देता है. हमारे टोले के करीब 40 लोग चुनावों में नारे लगाने के लिए और रैली में भीड़ दिखाने के लिए लेकर जाते हैं. हमें तो चुनावों में यह भी नही पता कि हम किसके लिए टेर लगा रहे हैं. बस 200 रु और एक शाम की रोटी मिल जाती है.”

घासीराम भोपा, जो कि भोपा समाज के मुखिया भी है. वे कहते हैं, “हमारी सुनने वाला कोई नही है. एक समय था जब गांव में जाते थे, तो लोग हमारे स्वागत के लिए एकत्रित हो जाते थे. हमें पवित्र और शुभ माना जाता था. गांव के बुजुर्गों की मौजूदगी में फड़ को खोला जाता था. हम लगातार सात रात पाबूजी की फड सुनाते और राजाओं के 24 परिवारों का वर्णन करते थे. पूरे गांव में जैसा उत्सव का माहौल हो जाता था. शाम होते ही गाव के बुजर्ग लोग हुक्का और चिलम लेकर हमारे पास आकर बैठ जाते थे और रात भर गांव और समाज की बातें करते थे.”

घासीराम भोपा के टोले की स्थिति

घासीराम भोपा का टोला अजमेर के पुष्कर के मेला मैदान से करीब 3-4 किलोमीटर दूर गनेड़ा गाव से बाहर, पहाड़ी के पास बालू रेत के टीले पर स्थित है. वहां रहने के लिए करीब 20-25 प्लास्टिक के फटे तंबू हैं. टोले में कुल 200 सदस्य है, जिसमें 100 से ज्यादा बच्चे हैं. लेकिन कोई भी बच्चा स्कूल नही जाता. ये लोग पीने का पानी लाने के लिए चार किलोमीटर दूर जाते हैं. तमाम सरकारी दावों के बावजूद इनके टोलों के आस पास न तो कोई आंगनवाड़ी है और न ही कोई छोटा मोटा स्वास्थ्य केंद्र. दो- चार लोगों के पास आधार कार्ड हैं और कुछ लोगों के वोटर कार्ड हैं.

लोक सभा चुनाव को लेकर भोपा समाज की प्रतिक्रिया

चुनावों का नाम लेते ही घासीराम भोपा फफक फफककर रोने लगे. उन्होंने कहा, “चुनाव तो हमारे जीवन का काल हैं, जब जब चुनाव आते हैं हम दिन और रात अपने उजड़ने का इंतजार करते हैं. पिछली दफा तो हमारे टोले में एक महिला की मौत भी हो गई थी. हमें जमीन का पट्टा देना तो दूर रहा, हमारे इन कच्चे घरोदों को भी ढहा देते हैं. पहले हमें शहर की सुंदरता के नाम पर उजाड़ा, फिर बड़े नेता की रैली के नाम पर हमारा तंबू छीन लिया. अधिकारी आकर बोले कि बड़े नेता आयेंगे. रात में कई पुलिस की गाड़ियां आई और हमारे तंबुओं को उखाड़ दिया. हम बरसात में भीगते रहे. इसी दौरान, हमारे टोले की एक महिला बीमार पड़ गई और उसकी बाद में मौत हो गई. अब कौन पालेगा उसके बच्चों को? पिछले दिनों हमें मेला ग्राउंड से भी हटा दिया. अब हमें यहां भी चैन नही. बोल रहे हैं कि यहां से भी हटो. हमें पिछले एक साल में तीन जगहों से उजाड़ दिया. मैं आपसे पूछता हूँ कि आखिर हम जाए तो कहाँ जाएं ? सभी सरकारें ऐसे ही सताती हैं. दुख इस बात का है कि समाज ने भी हमें भुला दिया है.”

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, पूरे हिंदुस्तान में 840 घुमंन्तु जातियां हैं. अकेले राजस्थान में 53 जातियां हैं. इनमें नट ,भाट, भोपा, कालबेलिया, बावरिया, मोग्या, गाड़िया लुहार, कंजर, सांसी इत्यादि शामिल हैं. इन सभी जातियों की स्थिति एक जैसी ही है.

पुष्कर में ही थोड़ी दूरी पर नट- भाट के तंबू हैं. उन्ही में एक फटे तंबू में फुश का घोड़ा ओर हाथी बना रहे विजय भाट ने बताया कि सरकार ने उनके जीवन को फुटबाल बना दिया है. जिधर मन करे, उधर ठोकर मार देती है. उन्होंने कहा, “पहले हम गनेड़ा गांव के रोड के नजदीक से हटाया, तो हम मेला ग्राउंड के पास चले गए. वहां पर दो महीने बाद ही रैली के नाम पर रातों - रात हमारे तंबुओं को उजाड़ दिया. तब हम बड़ी पानी की टंकी के पास आए. अब यहां से हटाया है, हम मंदिर के पास जाकर अपने तंबू लगा रहे हैं. वहां भी बोल रहे है कि चुनावों के बाद जाना होगा. हम जायें, तो कहाँ जायें? हमारे पास जमीन तो है ही नहीं. लोग बोलते है कि बच्चों को पढ़ाओ. अरे कैसे पढ़ाएं? स्कूल भेजते हैं, तो दो महीने में हमारा घर उजाड़ देते हैं. फिर हम कहीं और चले जाते हैं. पक्का मकान तो दूर रहा, हमारे तो इन कच्चे घरौंदों को भी ढहा देते है. पिछले एक वर्ष में चार जगह से हमें उजाड़ दिया. इससे तो अच्छा है कि सरकार हमे मार दे, सारा झंझट ही खत्म हो जाएगा.”

विजय ने आगे बताया कि उनके टोले में 40 घर हैं, जिनमे 250 से ज्यादा लोग हैं. कोई होटल में काम करता है, तो कोई सेठ लोगों का ऊंट चलाता है. कोई फुश का घोड़ा बनाता है, तो कोई कटपुतली नचाता है या फिर बेलदारी करता है. उन्होंने कहा, “हमारे टोले में करीब 80 बच्चे हैं. कोई स्कूल नही जाता. कैसे भेजें? हमे यही नहीं पता कि रात तक भी यहां रुक पाएंगे या नही. पुलिस रात में ऐसे आती है जैसे कि हम कोई आतंकवादी या चोर उचक्के हों. पहले करतब दिखाने जाते थे, लेकिन अब उसपर रोक लगा दी है. अभी केवल यह फुश के घोड़े बनाते हैं.”

कोन है नट - भाट ?

नट और भाट तो लकड़ी, रस्सी ओर ढपली के साथ यायावरी की एक गाथा है जिसे आज हमने खेल और करतब दिखाने वालों में समेट दिया है. ये खेल और करतब तो उस समय से दिखा रहे हैं, जब हमारे घर की महिलाएं दो फीट के घूंघट में रहती थीं. सोचिए कि उस समय गांव की चौपाल में जो नटनी ढपली की थाप पर कभी आग के गोले से कूदती तो कभी रस्सी पर चलती, इससे उनकी मनोदशा पर क्या प्रभाव पड़ता होगा ? इसको महज करतब कह देना कितना जायज है?

विधानसभा चुनावों से पहले पाली जिले मे मोग्या समाज की बस्ती को उजाड़ दिया. कारण बताया गया कि रोड पर अवैध कब्जे हटाए गए हैं. जबकि हरिया मोग्या का कहना है कि रैली निकालने में दिक्कत आ रही थी, तो उनके तंबुओं को हटा दिया क्योंकि उधर खड़ी बड़ी - बड़ी मोटरकारों को तो उठाना आसान नही था. हरिया ने कहा, “रोड पर घूम रहे छुट्टे सांडों को तो कोई नही हटाता जोकि फसल को बर्बाद कर रहे हैं. जबकि हमारे 170 लोगों की बस्ती को उजाड़ दिया.” हरिया के माथे पर केवल चिंता की लकीरें नही थी, बल्कि वो कुछ प्रश्न का जवाब भी तलाश रही थी.

राजस्थान में नई सरकार ने बनते ही विकास के नाम पर जयपुर में झोटवाड़ा के पास घुमंन्तु समाज के टोलों को उजाड़ दिया क्योंकि ये लोग शहर की सुंदरता पर धब्बा थे. करीब 150-160 घरों के 850 लोगों की बस्ती में बंजारे, बागरी, भाट ओर कालबेलिया कई वर्षों से एक साथ रह रहे थे.. लेकिन यह किसी ने भी नही सोचा कि वो लोग अपने बच्चों को लेकर कहाँ जाएंगे ? उनके पास न तो जमीन का पट्टा है और न कोई कागज़ात.

ठीक ऐसे ही, एन टी रिंग रोड, जयपुर के पास कालबेलिया बस्ती है जिसमें करीब 100 परिवार हैं. टोले के मुखिया शंकरनाथ कालबेलिया जिनकी उम्र करीब 80 वर्ष रही होगी, कान में मुरकी, सर पर साफ़ा बांधे, तीन लांग की धोती पहने, रुंधे गले से बताने लगे कि उनलोगों को पिछले एक साल में तीन बार उजाड़ दिया गया है. उन्होंने कहा, “ हम पिछले 30 साल से जयपुर में ही इधर उधर भटक रहे हैं. हमारा पारम्परिक काम तो समाप्त हो गया क्योंकि सरकार ने सांप पकड़ने पर रोक लगा दी. अब कोई जन्मघुट्टी और सुरमा लेना भी पसंद नही करता. हम यहां चुना - पत्थर का काम करते हैं. कभी रोजगार मिल जाता है, कभी नही मिलता.”

दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में आदेश दिया था कि किसी भी झुग्गी - झोपड़ी को तोड़ा या हटाया नही जाएगा. लेकिन यह बात शायद राजस्थान में अधिकारीगणों के पास पहुँची नहीं या फिर उन्हें कोर्ट का कोई डर नही है. तभी तो कालबेलिया बस्ती को हटाने के लिए दो बार अधिकारी वहां जा चुके हैं.

घुमंन्तु समाज के जीवन की त्रासदी यह है कि किसी को यह पता ही नही कि इनकी संख्या कितनी है ? घुमंन्तु समाज की स्थिति का पता लगाने और उनको विकास के दायरे में लाने के लिए बने रैनके आयोग के अध्यक्ष रहे बालकृष्णन रैनके का कहना है कि हमारे यहां मौजूद लोकशाही में जागरूक और संगठित लोगों की चलती है. चूंकि घुमन्तु लोग न जागरूक है और न ही संगठित, तो सभी सरकारें उनके जीवन का ऐसे ही तमाशा बनाती हैं.

घुमंन्तु समाज का पारंपरिक काम समाप्त हो चुका है. सरकार के विकास के मॉडल और लोकतांत्रिक विमर्श से बाहर वो दिहाड़ी मजदूर बन गए हैं. लेकिन बड़ी त्रासदी इस बात की है कि समाज ने भी उनके योगदान को भुला दिया है.