प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विविधताओं का देश होने के कारण भारतीयों में सांस्कृतिक सह अस्तित्व की विशेषताएं देखी जाती है। यहाँ के लोग नए परिवेश के साथ आसानी से सिर्फ घुल-मिल ही नहीं जाते, बल्कि उनकी विशिष्टताओं को अंगीकार कर अपनी जीवनशैली में अपना भी लेते हैं। यही कारण है कि सहनशीलता, भाईचारा, धैर्य हमेशा से भारतीयों की खासियत रहे हैं। खास तौर पर सहिष्णुता उनकी विशिष्ट पहचान मानी गई है।

फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि सहिष्णुता की हमारी पहचान और विशिष्टता ने "यू - टर्न" ले लिया और हम असहिष्णु की श्रेणी में आ गए? और अब असहिष्णुता शब्द ने बहुत धमक के साथ आम लोगों की बातचीत, चर्चा और बहस के साथ-साथ अखबार और न्यूज चैनलों के मुख्य विषय के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली है। इसका अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि असहिष्णुता, व्यवहार की अचानक पैदा हो गई कोई नई उपज है। पारस्परिक स्तर पर पारिवारिक और सामाजिक परिवेश में कभी-कभार इसके उदाहरण देखने को मिल जाते थे। लेकिन दिल्ली से सटे दादरी में गोमांस खाने के संदेह में कुछ हिन्दू युवाओं द्वारा एक मुस्लिम पड़ोसी की पीट-पीट कर हत्या कर देने की अमानवीय घटना और फिर इससे मिलती-जुलती क्रमवार अनेक घटनाओं और लेखकों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, इतिहासकारों, फिल्म से जुड़े लोगों और भी कई अन्य बुद्धिजीवियों और उदारवादी संगठनों द्वारा इसके विरोध में धरना, प्रदर्शन के साथ-साथ पुरस्कार वापसी जैसी घटनाओं ने आम लोगों को असहिष्णुता शब्द के काफी करीब ला कर खड़ा कर दिया है।

यह सही है कि इसकी आग में धार्मिक और राजनैतिक गलियारों में सब अपनी-अपनी रोटी सेंकने में व्यस्त रहे हैं लेकिन इससे बिल्कुल भिन्न उस असहिष्णुता पर भी विचार करना होगा, जो समय के साथ-साथ चुपके से आम भारतीयों की मानसिकता अर्थात उनके सोच, विचार, विश्वास और व्यवहार का हिस्सा बनती जा रही है और उनपर अपनी पकड़ बढ़ाती जा रही है।

स्पष्ट दिख रहा है कि लोगों के बर्दाश्त करने की सीमा छोटी होती जा रही है। छोटी-छोटी बातों में लोग अपना आपा खो दे रहे हैं। जो बातें या घटनाएँ उनकी इच्छाओं और उम्मीदों के प्रतिकूल होती हैं उसके प्रति वे कई बार बिना कुछ आगे-पीछे सोचे ही इतनी तीखी प्रतिक्रिया कर देते हैं जोकि उस छोटी सी बात या घटना के लिए आवश्यक नहीं थी। इस तरह की प्रतिक्रियाएँ हर किसी के लिए होती हैं चाहे अपने हों या पराए, परिचित हों या अपरिचित। इसकी वजह से न सिर्फ माहौल तनावपूर्ण हो जाता है, बल्कि एक दूसरे के प्रति कड़वाहट भी बढ़ती है और रिश्ते कमजोर होते हैं। उदाहरण के तौर पर, इधर कुछ दिनों की खबरों की एक झलक देखें- "बरसात के दिनों में एक बेटा मोटरसाइकिल से पिता को लेकर कहीं जा रहा था। तेजी से चलाने की वजह से सड़क पर जमे पानी का छींटा आसपास से गुजरने वालों पर पड़ गया। तीखे संवादों का आदान-प्रदान होते-होते बात इतनी बिगड़ गई कि लोगों ने बाइक सवार को इतना पीटा कि मौके पर ही बूढ़े पिता की मृत्यु हो गई और बेटे को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।" "स्कूल में शिक्षिका ने नंबर कम आने पर दो विद्यार्थियों को डाँटा और पिता से शिकायत करने की धमकी दी। बस क्या था, दोनों ने मिलकर स्कूल में ही शिक्षिका की पिटाई कर दी।" "एक बुजुर्ग ने अपनी पत्नी और बेटे को एयरकंडीशनर चलाने से मना किया था। सुबह जब उसने देखा कि उसकी बातों की अवहेलना कर दोनों आराम से एयरकंडीशनर चला कर सो रहे हैं, तो उसने गुस्से में रॉड से मार-मार कर उनकी हत्या कर दी।" "कोई मेरी गाड़ी को बार-बार ओवरटेक (पीछे) कैसे कर सकता है। इस बात से आहत होकर आगे जाने वाली गाड़ी पर गोलियों की बौछार कर दी"-

इस खबर को पढ़ कर विजय दान देथा की वर्षों पुरानी कहानी "अनेकों हिटलर" की याद ताजा हो जाती है। उन्होंने चित्रित किया है कि गाँव के एक सम्पन्न और दबंग परिवार के तीन भाई नया-नया ट्रैक्टर खरीद कर हँसी-ठिठोली करते हुए शान से घर लौट रहे थे। रास्ते में एक साइकिल वाला एक-दो बार उनके ट्रैक्टर से आगे निकल जाता है। यह ट्रैक्टर चलाने वालों की बर्दाश्त से बाहर था कि साइकिल वाले ने कैसे उनको पीछे करने की हिमाकत कर दी। इसी आक्रोश में उनलोगों ने उसे ट्रैक्टर से कुचल दिया। दशकों पुरानी कहानी आज जीवंत रूप में हमारे सामने अक्सर दुहराई जा रही है।

ऐसी घटनाएँ सिर्फ अखबारों में ही नहीं छपतीं बल्कि रोज के जीवन में भी देखी जाती हैं। करीब यह रोज ही होता है कि पीछे से हॉर्न बजाने वाली गाड़ी को भीड़ की वजह से यदि रास्ता नहीं दे पाई, तो वह अपशब्द बोलते और घूरते हुए ऐसे आगे निकलता है जैसे मैंने कितना बड़ा अपराध कर दिया हो। परीक्षा में नकल करने से रोकने पर परीक्षार्थी से धमकी मिलती है कि बाहर निकलो तो बताते हैं। बार-बार मना करने पर भी बच्चे ने मोबाइल या टी.वी. बंद नहीं किया तो पटक कर उसे तोड़ देना, जैसी घटनाएँ आम होती जा रही हैं।

इन सारे उदाहरणों की पृष्ठभूमि में असहिष्णुता शब्द को कुछ इस प्रकार समझा जा सकता है - जब किसी का व्यवहार लोगों की उम्मीदों के अनुसार नहीं होता, तो कुछ लोग इसकी प्रतिक्रिया में बगैर उचित-अनुचित की परवाह किये ही परिस्थिति की माँग से ज्यादा तीखी और आक्रामक प्रतिक्रिया कर देते हैं। यहाँ तक कि ऐसे लोग समाज द्वारा स्वीकृत मानकों को भी लाँघ जाते हैं, जबकि समान परिस्थिति में अधिकांश लोग शांत और सहज बने रहते हैं।

इससे स्पष्ट है कि -

लोगों के बर्दाश्त करने का दायरा सिकुड़ता जा रहा है। जो बातें या स्थितियाँ उनको पसंद नहीं आतीं, उसे वे बर्दाश्त नहीं कर पाते। अर्थात् सब कुछ अपने अनुकूल चाहते हैं।

थोड़ा विरोध भी उनके आत्मसम्मान और प्रभुत्व को आहत कर देता है। भविष्य को लेकर वे आशंकित हो जाते हैं।

लोग तनाव में आ जाते हैं। सही गलत को लेकर उनकी समझ संकुचित हो जाती है।वे आत्मकेन्द्रित हो जाते हैं।

दूसरों के प्रति उनकी संवेदनशीलता घट जाती है जिससे वे उनके भावों और आशय को समझ नहीं पाते। अपने लिये ज्यादा चिंतित और चैकन्ने हो जाने पर दूसरों के प्रति उनकी ग्रहणशीलता कमजोर पड़ जाती है।

इस अवस्था में व्यक्ति संवेगों से ज्यादा प्रभावित होता है। उसमें संवेगात्मक अस्थिरता और उत्तेजना देखी जाती है। कुछ समय के लिये उनका विवेक कमजोर पड़ जाता है। सही-गलत, नैतिक-अनैतिक का ज्ञान समाप्त हो जाता है।

ऐसे में व्यक्ति कभी-कभी सभी सीमाओं को तोड़ कर तीव्र प्रतिक्रिया कर देता है जिसके बारे में सामान्य स्थितियों में शायद सोचता भी नहीं। उसको इसकी चिंता भी नहीं रहती कि दूसरों पर या खुद पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा।

दूसरों के प्रति घटी हुई संवेदनशीलता और उत्तेजना की अवस्था दोनों मिल कर उसे असहिष्णु बना देते हैं।

एक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से इस असहिष्णुता के अनेक कारण हैं. इसमें प्रमुख हैं, पहचान और प्रभाव की चाहत, बढ़ती महत्वाकांक्षा, बढ़ता मानसिक तनाव, रिश्तों का सिकुड़ता दायरा, सामाजीकरण का सिमटना, रिश्तो में नफा-नुकसान का आकलन, संवाद में कमी, निजी जीवन में दखलंदाजी बर्दाश्त नहीं, घटती संवेदनशीलता, मीडिया का बढ़ता प्रभाव इत्यादि।

बुद्धिजीवियों को यह समझना पड़ेगा कि सामाजिक संकट के इस दौर में वे समाज सुधार की सिर्फ चर्चा न करें, बल्कि जमीनी स्तर पर लोगों के सामने ऐसे सकारात्मक उदाहरण बार-बार पेश करें जो उनके इर्द-गिर्द ही घट रहे हैं लेकिन सनसनीखेज नहीं होने के कारण उनपर किसी का ध्यान नहीं जाता। इससे अच्छा करने और सोचने वालों का सिर्फ मनोबल ही नहीं बढ़ेगा बल्कि औरों को प्रेरणा भी मिलेगी। साहित्यकारों को भी इस दिशा में पहल करनी होगी। प्रेमचंद की कहानी "ईदगाह" को पढ़कर ऐसा कौन किशोर होगा जो हामिद जैसा बनने को प्रेरित नहीं हुआ होगा। आपस की बढ़ती दूरियों, अविश्वास, प्रतियोगिता और बदले की भावना से प्रेरित इस दौर से ऊबे और घबराए आम लोगों को हाल ही में प्रदर्शित निम्न मध्यम वर्ग की ग्लैमरहीन जिन्दगी पर आधारित फिल्म "सुई-धागा" दिल के बहुत करीब महसूस हुई। इसमें परिवार, मित्र और अपनों के साथ की ताकत को तो दर्शाया ही गया है साथ ही बदले की भावना के बिना अप्रिय लोगों और घटनाओं को नजरअंदाज कर ईमानदार प्रयास द्वारा मंजिल तक पहुँचने पर जोर दिया गया है। लेकिन इस तरह की एक कहानी, घटना या फिल्म सिर्फ उदाहरण देने के काम आती है, जबकि सामाजिक बदलाव के लिए ऐसी अनेकों जीवंत घटनाओं और कहानियों की जरूरत है। मीडिया इस दिशा में एक सशक्त भूमिका अदा कर सकता है।

इसकी भी जरूरत है कि लोग चेतन स्तर पर अपनों की सीमा को बढ़ा कर आसपास, पड़ोस, मित्र, रिश्तेदार, कुछ परिचित, कुछ अपरिचित तक ले जाएँ। मोबाइल, टी.वी., इन्टरनेट की दुनिया और एयरकंडिशनर के आरामदेह कमरे से निकल कर दूसरों से संवाद बनाएँ। एक दूसरे के भावों को समझें और महसूस करें। यह सही है कि साथ होने पर आपस में तुलना, बराबरी, दिखावा, प्रतियोगिता होती है, लेकिन इसी के साथ संगठन और साझेपन की ताकत का अंदाज भी लगता है। दिल में दबी बातों को साझा कर बोझिल मन को सुकून मिलता है। सिर रख कर रोने वाले कंधे मिलते हैं। खुशी और उपलब्धियों को बाँटने वाले लोग मिलते हैं। बस जरूरत है अपने अहम को छोड़ दूसरों की तरफ हाथ बढ़ाने की।

बच्चों की परवरिश पर ध्यान देना होगा। उनमें हार स्वीकार करने और "ना" सुनने की क्षमता विकसित करनी होगी। उनमें यह भाव जगाना होगा कि पढ़ाई सिर्फ व्यक्तिगत उपलब्धियाँ हासिल करने, ऊँचे पदों पर जाने और पैसा कमाने के लिए ही नहीं की जाती, बल्कि समाज और राष्ट्र के विकास में योगदान देने के लिए भी की जाती है।

जरूरत है छोटी-छोटी चीजों में खुशी ढूँढने की। बड़े लक्ष्य के सामने छोटी उपलब्धियाँ प्रभावहीन हो जाती हैं। इसका यह बिलकुल भी अर्थ नहीं है कि बड़े सपने न देखे जाएँ। लेकिन क्षमता और उम्मीदों के बीच अंतर बढ़ने से सिर्फ सपने नहीं टूटते बल्कि व्यक्ति की कोमल भावनाएँ भी आहत होती हैं। उनमें निराशा, कुंठा, आत्मविश्वास की कमी तो होती ही है, सामाजिक उपेक्षा का डर भी घर करने लगता है। और यह सब मिलकर व्यक्ति की सहिष्णुता को प्रभावित करते हैं। इसलिए आवश्यक है कि ऊँची मंजिल पर पहुँचने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियाँ इस्तेमाल की जाएँ। बढ़ते हर कदम को एक उपलब्धि माना जाए। ऐसे में एकदम शिखर पर न पहुँच कर बीच तक भी पहुँचने पर हताशा में व्यक्ति टूटकर बिखरते नहीं हैं।

जीवन की व्यस्तता में बचपन से लेकर अभी तक जो शौक अधूरे रह गए हैं उन्हें नए सिरे से जीवित करना चाहिए, इससे नई उर्जा मिलती है। कई बार लोग बिना वजह अपने को सीमाओं में बाँध लेते हैं। 'उम्र हो गई अब हम मस्ती नहीं कर सकते', 'खुल कर हँस-बोल नहीं सकते', 'अपने शौक पूरे नहीं कर सकते' आदि। हर किसी के मन में अनेकों ऐसी इच्छाएँ सिर्फ इस डर से दबी रह जाती हैं कि "लोग क्या कहेंगे"। जरूरत है पहल करने की। बहुत सारे लोग सिर्फ इस इन्तजार में रहते हैं कि उन्हें मौका देने के लिए कोई तो आगे बढ़ें। इससे व्यक्ति के मन में दबी बहुत सारी ग्रंथियाँ खुल जाएगी और कई चीजों के प्रति उनकी स्वीकार्यता बढ़ जाएगी।

कुछ दिनों पहले ईरानी सिनेमा के शिखर पुरुष अब्बास कैरोस्तामी की साढ़े चार-पाँच मिनट की एक लघु फिल्म "टू सौल्यूशंस फार वन प्राबलम" देखने को मिली। यह एक तरीके से दुनियाँ को वैमनस्य और असहिष्णुता छोड़ कर सहनशीलता के जरिए संबंधों को प्रगाढ़ करने, अमन-चैन कायम करने और विकास की दिशा में आगे बढ़ने के लिए सकारात्मक और रचनात्मक संदेश देती है। यह फिल्म स्कूल जाने वाले आठ - दस वर्षीय दो बच्चों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक बच्चा स्कूल के दूसरे बच्चे की एक किताब घर ले जाता है और जब वापस करता है तो वह फटी हुई थी, शायद लापरवाही से। इस समस्या के दो समाधान हो सकते हैं- एक रास्ता है कि फटी किताब देखकर बच्चे मार-पीट करें, कपड़े फाड़ डालें, एक दूसरे की पेन्सिल, स्केल तोड़ डालें और एक दूसरे को घायल कर अलग-अलग हो जाएँ, लेकिन फटी हुई किताब फिर भी फटी ही रहती। दूसरा रास्ता है कि दोनों मिलकर फटी हुई किताब को गोंद से चिपका दें और हँसी-खुशी एक दूसरे के साथ टिफिन करें और मस्ती में समय गुजारें। आज के हालातों के लिए यह फिल्म बहुत प्रासंगिक है। आवश्यकता है अपनी रचनात्मकता में इस तरह के बुनियादी इन्सानी नुस्खों को अपनाने की।

(लेखिका पटना विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग में प्रोफ़ेसर हैं)