बहुजन और बहुसंख्यक का फर्क एक राजनीतिक नजरिये को सामने लाता है। बहु-संख्यक में जो संख्यक जुड़ा है वह एक राजनीतिक नजरिये से जुड़ता है। संख्यक गणित की भाषा है और अंकों में सबसे ज्यादा होने के दावे को स्थापित करता है। संख्यक की ध्वनि एक भीड़ की ध्वनि से जुड़ती है। शब्दों को बेहद संवेदनशील होकर सुनना चाहिए और उसके प्रभाव को समझने की कोशिश करनी चाहिए। समाज के जिस हिस्से के पास शब्द के तत्काल पड़ने वाले प्रभाव और दूरगामी प्रभाव को समझने की जितनी क्षमता विकसित होती है, वह समाज अपनी संस्कृति को जारी रखने में उतना ही सफल होता है।

बहुजन को ध्यान से सुनें । बहु के साथ लगा जन मानव समाज को संबोधित करता है। यह उसमें जीवन होने की ताकत को प्रदर्शित करता है। बहुजन भीड़ नहीं है। बहु और जन को अलग कर देखें तो यह ध्वनि सुनाई देती है कि समाज के लोगों के बीच की बाहुल्यता को स्थापित करने का इरादा इस शब्द में समाहित है। जन जो कि अपने श्रम और चेतना से संस्कृति निर्मित करता है वे नैसर्गिक तौर पर बाहुल्य हैं और उनका समाज निरंतर विकसित करने पर जोर होता है।

संख्यक जन की चेतना और उसके सृजन का निषेध करता सुनाई पड़ता है। वह एक खास तरह की संस्कृति की परजीविता पर जोर देता है जो कि एक भीड़ बनने की मानसिकता से ही संभव है। जिस तरह से पुरी दुनिया और खासतौर से हमारे देश में बहुसंख्यकवाद की विचारधारा को स्थापित करने की कोशिश हो रही है उस प्रक्रिया में होने वाली घटनाओं पर गौर करें। एक भीड़ की मानसिकता को तैयार करने की वह एक प्रक्रिया दिखती है। एक भीड़ की मानसिकता में निर्माण और सृजन नहीं होता है। इसके विपरीत बहुजन सृजन और निर्माण पर जोर देता है क्योंकि मानव समाज का समानता के साथ आगे बढ़ने का लक्ष्य उसके साथ जुड़ा हुआ है।

राजनीति का बहुजन करण

हिंदू महासभा ने नारा दिया – राजनीति का हिंदूकरण करना होगा और हिंदू का सैन्यकऱण करना होगा। इसकी जरूरत किसको और क्यों पड़ी। हिंदूकरण का मतलब जो खुद को हिंदू नहीं मानते है और नहीं है, उन्हें हिंदू के रुप में तैयार करना ताकि वह भविष्य की राजनीति को हिंदू के रुप में प्रभावित कर सकें। भविष्य की राजनीति का मतलब ब्रिटिश सत्ता के बाद की जो राजनैतिक तस्वीर बन रही थी उस राजनीति को अपने कमान में रखा जा सके। हिंदूकरण कैसे संभव हो सकता है? इस प्रश्न का जवाब डा. अम्बेडकर के शब्दों में समझने की कोशिश कर सकते हैं। ये बात उनके जात पात तोड़क मंडल वाले भाषण तैयार करने की प्रक्रिया के हिस्से हैं। डा. अम्बेडकर के अनुसार ‘धार्मिक धारणाओं का विनाश किए बिना , जिन पर यह जाति व्यवस्था आधारित है , जाति को तोड़ना संभव नहीं हैं।’ यहां इस प्रश्न को समझने की जरुरत है कि जाति को हिंदू बनाने का क्या मकसद हो सकता है और किन्हें किस रास्ते से हिंदू बनाने की बात की जा रही है ।

इस प्रक्रिया को मैंने इलाहाबाद के हाल के दौरे के समय और ठीक से समझा। एक बैठक में उन जातियों के बीच से कार्यकर्ता आए थे जो कि पहले शुद्र और अछूत कहे जाते थे। उनसे सीधे यह सवाल किया गया कि आपमें से कितनों के घरों में पूजा पाठ और आरती की जाती है यानी धार्मिक धारणाओं को तुष्ट किया जाता है। उनमें से लगभग सभी ने यह स्वीकार किया कि उनके घरों में देवी देवताओं की तस्वीरें लग गई है जबकि उनके मां पिता के लिए ये तस्वीरे नई बात है ।ज्यादा से ज्यादा गांव के देवता उनके लिए एक आस्था के प्रतीक के रुप में सामूहिक केन्द्र होते थे।

हिन्दू करण के इस रास्ते को इस उद्धरण से भी समझा जा सकता है । बाल गंगाधर तिलक ,जिन्हें लोकमान्य तिलक से नवाजा गया है चित्तपावन ब्राहम्ण थे। सामाजिक रूढीवाद में उनकी गहरी आस्था थी। तिलक ने राजनीतिक संदेश के लिए महाराष्ट्र में गणपति के प्रतीक का इस्तेमाल किया। वे गैर ब्राहम्णों की शिक्षा को राष्ट्रीयता की क्षति के रुप में देखते थे। महिलाओं की शिक्षा के भी विरोधी थे। यह उस समय की बात है जब बहुजनकरण की प्रक्रिया के तहत जोतिबा फुले और सावित्री बाई फुले स्त्रियों, शुद्रों और अतिशुद्रों के लिए स्कूलों की स्थापना कर रहे थे।

इस तरह दो तरह की राजनीतिक प्रक्रियाएं चलती रही है। इनमें हिन्दूत्व का जोर बहुसंख्यकवाद की भावनाओं को तेज करने का होता है तो दूसरी तरफ बहुजनकरण इस वाद को चुनौती देता है। इन दोनों का फासला निर्माण की जन संस्कृति और आतंरिक संघर्ष की स्थितियों का निर्माण करने की तरफ बढ़ता है।

सामाजिक न्याय बनाम सोशल इंजीनियरिंग

1991 में जब साम्प्रदायिकता को सामाजिक न्याय के विचार की काट के लिए पर्याप्त नहीं महसूस किया गया तो सोशल इंजीनियरिंग का नारा दिया गया। इस सोशल इंजीनियरिंग का अर्थ यह है कि बहुजनों के बीच जाति नेतृत्व को उकसाया जाए। हिंदूत्ववाद की राजनीति करने वाली राजनीति में पिछड़े, शुद्रों और अति शुद्रों के बीच की कुछेक जातियों के लिए जगह बनाई गई। ताकि सदियों से सामाजिक स्तर पर दबी उन जातियों के भीतर हिंदूत्ववाद के रास्ते सशक्तिकरण का भ्रम पैदा हो सकें। उन नेताओं को हिंदुत्ववाद के लिए आक्रमक नेतृत्व के रुप में पेश किया गया । तब से यह सोशल इंजीनियरिंग का सिलसिला चल रहा है।

सोशल इंजीनियरिंग का लगभग वहीं अर्थ है जिस तरह से डा. अम्बेडकर के शब्दों में आर्य समाजियों ने चातुर्वणर्य की वकालत की थी और उसे सुधार के रुप में प्रचारित किया था। सामाजिक न्याय यानी समानता के लिए शुरु होने वाले किसी कार्यक्रम के लिए सोशल इंजीनियरिंग की जरुरत नहीं प्रतीत होती है। इसे इस तरह से समझा जाना चाहिए कि बहुजनकरण की प्रक्रिया को बाधित करने के लिए समय समय पर नई रणनीतियां तैयार की जाती है।सोशल इंजीनियरिंग का अर्थ नेपाल के इतिहास से समझा जा सकता है। हिन्दूत्व के आधार पर नेपाल को एकीकृत करने वाले राजा पृथ्वी नारायण शाह ने जब वर्ण व्यवस्था की 200-879 ईं. से चली आ रही परिभाषा को छोटा देखा तो उन्होने चार वर्ण- अठारह जाति के बजाय चार वर्ण छत्तीस जाति की एक नई परिभाषा स्थापित कर दी।भारत की संसदीय राजनीति में पिछड़े वर्ग में सबसे उपर की जाति के बरक्स संख्या के आधार पर दूसरे और तीसरे नंबर की जाति को और इसी तरह अनुसूचित जाति में दूसरे तीसरे नंबर की जातियों को सत्ता में अपना प्रतीक स्थापित करने की भूख पैदा करने और उसे भुनाने की जुगत ही सोशल इंजीनियरिंग के अर्थ के रुप में सामने आया है। इस सोशल इंजीनियरिंग ने ही संसदीय राजनीति में सामाजिक न्याय की प्रतिस्पर्द्धा की जगह ले ली है। यानी हर संसदीय पार्टियां अपने आधार की सोशल इंजीनियरिंग करने में जुटी है। इसीलिए राजनीतिक दृष्टि से यह फर्क करना बेहद जरुरी होता है कि सामाजिक न्याय की भाषा में सोशल इंजीनियरिंग की जा रही है या वास्तव में समानता की विचारधारा के साथ सामाजिक न्याय की बात की जा रही है। यही परख बहुजन के राजनीतिक नजरिये का पैमाना हो सकता है।